सब बदल रहे हैं,
सोचा खुद को भी
अब बदला जाए,
बहुत हुआ,
बस बहुत हुआ,
समय आ गया है
अब,
इस भोली भाली सूरत से
मुखोटे को उतार
देने का,
यह बेचारी सी मुस्कान
शायद फब्ती नहीं
अब मुझपे,
कहीं फेंक देना होगा
इसे कोने में,
बाज़ार में सुना है
नकली मुस्कान
कौड़ियों के दाम बिक
रही है,
कल ही खरीद के लाया है
मेरा एक दोस्त,
खुश है,
सुना है कोई गम नहीं
अब उसकी ज़िन्दगी में,
भला देखो तो क्या ज़माना
आ गया है...
इन आँखों की नमी
को कई साल हो गए
संभाले हुए,
कोई ज़रुरत नहीं अब इसकी,
जिनको सोच के इसे
संभाले रखा था,
वोह अब नहीं आनेवाले,
बाज़ार में लाल रंग की
आँखें मिलती हैं,
नन्ही सी डिबिया में,
थोड़ी महंगी हैं,
पर क्या फर्क पड़ता है,
५ साल की गारन्ती
भी तो है उनपे,
ले आता हूँ
और फिर आँखें दिखता
हूँ दुनिया को,
देखता हूँ फिर कौन
इंतज़ार करवाता है सदियों तक...
बड़ा मुश्किल है,
सबसे अच्छा होना,
सबके लिए अच्छा करना,
पर आज कल सुना है
सब बदल रहा है,
पहले जैसा नहीं रहा,
किसी से कुछ लेना देना
नहीं होता,
किसी के होने न होने से
कुछ फर्क नहीं पड़ता,
अच्छे बुरे में भी अब
कुछ अंतर नहीं रहा,
तख्ता पलट हो चुका है,
सत्ता बदल चुकी है,
सत्ता को चुनने वाले बदल
चुके हैं,
आजकल कोई अच्छा बुरा नहीं
सोचता,
सब सोचते हैं कि बस किसी
तरह कट जाए,
और गुज़र बसर हो जाए,
बाकी सब देखा जाएगा।
सब कुछ धुन्धला सा
दिखाई देता है अब,
लगता है की मंजिल कहीं
खो न जाऊं,
रास्ता कहीं भटक न जाऊं,
कोई दिखता भी तो नहीं अब
उस ओर जाता हुआ,
सुना है कि सफ़र मुश्किल था
तो वोह रास्ता बंद हो
चुका है,
एक आसान रास्ता बन गया है
उस मंज़िल तक,
बहुत लोग आसानी से मंज़िल
तय करते हैं अब,
सुबह जहाँ जूते उतार आया था
वहां से उन्हें हटाना होगा,
डर है कि आदत के मारे
बेचारे कहीं उस ओर न
चलदें फिरसे,
जहाँ रास्ता तो है पर
बंद है कबसे,
जिसपे चलके मंज़िल तो मिलती है
पर दबे पाँव सरक जाती है
उनकी ओर,
जो किसी और रस्ते से तय करते हैं
अपना सफ़र,
क्या करें,
छल कपट का ज़माना है,
जाने कौन कहाँ पे छलदे,
बचके रहना पड़ता है अब,
बस इन मंजिलों को बदलते
देखना ही बाकी था
ज़िन्दगी में,
वोह भी देख लिया,
पता नहीं अभी आगे क्या क्या
देखना होगा...
छोड़ आया था अपने निशाँ
जाते जाते उनके चेहरे पे,
और हँसते हँसते चल दिया
था मैं उनसे दूर,
माथे की वोह मासूम
शिकन आज भी
जिंदा है मेरे ज़हन में,
चूमता रहता हूँ उसे
सोते हुए,
कि फिकर कुछ कम हो जाए,
पर कुछ दिन से दरारें
नज़र आने लगी हैं उस
लम्हे में,
लगता है की टूट के गिरने
वाला है वक़्त का वोह टुकड़ा,
जो मेरे जिस्म का ही एक
हिस्सा है,
बदलते वक़्त की बदलती रफ़्तार
में कहाँ तक क्या क्या
संभाले रख पाना मुनासिब होगा,
नहीं जानता,
जानता हूँ तो बस इतना
की जाते जाते उस हाथ में जिस
चूड़ी को पहनाया था मैंने,
उस चूड़ी के टुकड़े दिन रात
चुभ रहे हैं मेरी
आँखों में…
सब बदल चुका है,
एक नई दुनिया जैसा
लगता है सब कुछ,
बदला बदला,
धुन्धला धुन्धला,
बेसुआदी सी शाम में
फीका सा पड़ गया है
सूरज का रंग,
और शाम की गरम गरम
चाये से निकलता धुंआ
भी ठंडा पड़ गया है कबसे,
दिसम्बर के महीने में
जिस सूरज की गर्मी से
सिकते थे थके हुए बदन
और पका करती थी रोटियां,
उस सूरज को टूटकर
एक नया सूरज बनते देखा
है मैंने,
माँ की फिकर और
बाबा की डांट भी कम
हो गयी है अब,
जिस खुले आसमान की छत
पे फागुन में उड़ा करते
थे पतंग,
उस आसमान की छत को
तंग होते देखा है मैंने,
जिस पीपल के पेड़ के नीचे
जमा करती थी बुजुर्गों
की पंचायत,
उस पीपल को पतझड़ होते
देख गुजरी है ज़िन्दगी,
घर के पीछे मिटटी में
जहाँ गोटियाँ छुपाया
करते थे हम,
सुना है एक दिन बाढ़ आई
और सब कुछ बहा के ले गयी,
बचपन की शरारत किसी
बिखरे घर के मलबे के नीचे
आकर दबी पड़ी है शायद,
अब कब मलबा हटेगा,
घर आबाद होगा
और फिर से हुड्दंग मचाएगी
शैतानों की टोली,
कोई नहीं जानता...
बदलाव का ज़माना है,
हवा में नयी लहर
चल रही है शायद,
इसलिए सब अजीब लग रहा है,
सब कटा कटा लग रहा है,
जीने में कुछ दिक्कत
तो है,
पर सांस लेना मजबूरी है,
सहना तो पड़ रहा है
लेकिन,
परिवर्तन संसार का नियम है,
इस नियम के खूंटे से बंधे
हुए सब जी रहे हैं,
बदली सी इस दुनिया में
छुप छुप कर,
डर डर कर,
हंसी को बचने की
कोशिश कर रहे हैं सब,
बहुत कुछ देख लिया,
और देखने की हिम्मत
कहाँ बाकी है अब,
बस जो समय बाकी है
कट जाए
और किसी तरह वक़्त का पहिया
बिना दस्तक थम जाए...
सोचा खुद को भी
अब बदला जाए,
बहुत हुआ,
बस बहुत हुआ,
समय आ गया है
अब,
इस भोली भाली सूरत से
मुखोटे को उतार
देने का,
यह बेचारी सी मुस्कान
शायद फब्ती नहीं
अब मुझपे,
कहीं फेंक देना होगा
इसे कोने में,
बाज़ार में सुना है
नकली मुस्कान
कौड़ियों के दाम बिक
रही है,
कल ही खरीद के लाया है
मेरा एक दोस्त,
खुश है,
सुना है कोई गम नहीं
अब उसकी ज़िन्दगी में,
भला देखो तो क्या ज़माना
आ गया है...
इन आँखों की नमी
को कई साल हो गए
संभाले हुए,
कोई ज़रुरत नहीं अब इसकी,
जिनको सोच के इसे
संभाले रखा था,
वोह अब नहीं आनेवाले,
बाज़ार में लाल रंग की
आँखें मिलती हैं,
नन्ही सी डिबिया में,
थोड़ी महंगी हैं,
पर क्या फर्क पड़ता है,
५ साल की गारन्ती
भी तो है उनपे,
ले आता हूँ
और फिर आँखें दिखता
हूँ दुनिया को,
देखता हूँ फिर कौन
इंतज़ार करवाता है सदियों तक...
बड़ा मुश्किल है,
सबसे अच्छा होना,
सबके लिए अच्छा करना,
पर आज कल सुना है
सब बदल रहा है,
पहले जैसा नहीं रहा,
किसी से कुछ लेना देना
नहीं होता,
किसी के होने न होने से
कुछ फर्क नहीं पड़ता,
अच्छे बुरे में भी अब
कुछ अंतर नहीं रहा,
तख्ता पलट हो चुका है,
सत्ता बदल चुकी है,
सत्ता को चुनने वाले बदल
चुके हैं,
आजकल कोई अच्छा बुरा नहीं
सोचता,
सब सोचते हैं कि बस किसी
तरह कट जाए,
और गुज़र बसर हो जाए,
बाकी सब देखा जाएगा।
सब कुछ धुन्धला सा
दिखाई देता है अब,
लगता है की मंजिल कहीं
खो न जाऊं,
रास्ता कहीं भटक न जाऊं,
कोई दिखता भी तो नहीं अब
उस ओर जाता हुआ,
सुना है कि सफ़र मुश्किल था
तो वोह रास्ता बंद हो
चुका है,
एक आसान रास्ता बन गया है
उस मंज़िल तक,
बहुत लोग आसानी से मंज़िल
तय करते हैं अब,
सुबह जहाँ जूते उतार आया था
वहां से उन्हें हटाना होगा,
डर है कि आदत के मारे
बेचारे कहीं उस ओर न
चलदें फिरसे,
जहाँ रास्ता तो है पर
बंद है कबसे,
जिसपे चलके मंज़िल तो मिलती है
पर दबे पाँव सरक जाती है
उनकी ओर,
जो किसी और रस्ते से तय करते हैं
अपना सफ़र,
क्या करें,
छल कपट का ज़माना है,
जाने कौन कहाँ पे छलदे,
बचके रहना पड़ता है अब,
बस इन मंजिलों को बदलते
देखना ही बाकी था
ज़िन्दगी में,
वोह भी देख लिया,
पता नहीं अभी आगे क्या क्या
देखना होगा...
छोड़ आया था अपने निशाँ
जाते जाते उनके चेहरे पे,
और हँसते हँसते चल दिया
था मैं उनसे दूर,
माथे की वोह मासूम
शिकन आज भी
जिंदा है मेरे ज़हन में,
चूमता रहता हूँ उसे
सोते हुए,
कि फिकर कुछ कम हो जाए,
पर कुछ दिन से दरारें
नज़र आने लगी हैं उस
लम्हे में,
लगता है की टूट के गिरने
वाला है वक़्त का वोह टुकड़ा,
जो मेरे जिस्म का ही एक
हिस्सा है,
बदलते वक़्त की बदलती रफ़्तार
में कहाँ तक क्या क्या
संभाले रख पाना मुनासिब होगा,
नहीं जानता,
जानता हूँ तो बस इतना
की जाते जाते उस हाथ में जिस
चूड़ी को पहनाया था मैंने,
उस चूड़ी के टुकड़े दिन रात
चुभ रहे हैं मेरी
आँखों में…
सब बदल चुका है,
एक नई दुनिया जैसा
लगता है सब कुछ,
बदला बदला,
धुन्धला धुन्धला,
बेसुआदी सी शाम में
फीका सा पड़ गया है
सूरज का रंग,
और शाम की गरम गरम
चाये से निकलता धुंआ
भी ठंडा पड़ गया है कबसे,
दिसम्बर के महीने में
जिस सूरज की गर्मी से
सिकते थे थके हुए बदन
और पका करती थी रोटियां,
उस सूरज को टूटकर
एक नया सूरज बनते देखा
है मैंने,
माँ की फिकर और
बाबा की डांट भी कम
हो गयी है अब,
जिस खुले आसमान की छत
पे फागुन में उड़ा करते
थे पतंग,
उस आसमान की छत को
तंग होते देखा है मैंने,
जिस पीपल के पेड़ के नीचे
जमा करती थी बुजुर्गों
की पंचायत,
उस पीपल को पतझड़ होते
देख गुजरी है ज़िन्दगी,
घर के पीछे मिटटी में
जहाँ गोटियाँ छुपाया
करते थे हम,
सुना है एक दिन बाढ़ आई
और सब कुछ बहा के ले गयी,
बचपन की शरारत किसी
बिखरे घर के मलबे के नीचे
आकर दबी पड़ी है शायद,
अब कब मलबा हटेगा,
घर आबाद होगा
और फिर से हुड्दंग मचाएगी
शैतानों की टोली,
कोई नहीं जानता...
बदलाव का ज़माना है,
हवा में नयी लहर
चल रही है शायद,
इसलिए सब अजीब लग रहा है,
सब कटा कटा लग रहा है,
जीने में कुछ दिक्कत
तो है,
पर सांस लेना मजबूरी है,
सहना तो पड़ रहा है
लेकिन,
परिवर्तन संसार का नियम है,
इस नियम के खूंटे से बंधे
हुए सब जी रहे हैं,
बदली सी इस दुनिया में
छुप छुप कर,
डर डर कर,
हंसी को बचने की
कोशिश कर रहे हैं सब,
बहुत कुछ देख लिया,
और देखने की हिम्मत
कहाँ बाकी है अब,
बस जो समय बाकी है
कट जाए
और किसी तरह वक़्त का पहिया
बिना दस्तक थम जाए...