Thursday, October 28, 2010

लम्हा

रात के उस लम्हे को कबसे
संभाले हुए घूम रहा हूँ,
चुरा के जो आँचल में भर
लिया था तुमने एक दिन,
और बिछा दिया था तकिये
के नीचे तख्तपोश पर,
बातों बातों में कब
तुम्हारी आँख लगी कि छूट गया
वोह लम्हा तुम्हारे हाथों से,
उस लम्हे को माथे से चूम
तुम्हारी अमानत समझ
लिया था मैंने,
और एक गुनाह कर बैठा था
मैं उस दिन,
एक जुर्म तुमने किया,
एक जुर्म मैंने किया,
कानून दोनों से टूटा,
फिर क्यूँ अकेले सज़ा काट
रहा हूँ एक मुद्दत से,
और मेरे साथ वोह मासूम
लम्हा भी मुजरिम बना हुआ है कबसे,
दिन रात झरोखों से तुम्हारी राह
तकते रहते हैं हम,
कि कब तुम आकर,
अपना जुर्म कबूल करो
और अपने उस लम्हे को रिहाई मिले...

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