Thursday, October 28, 2010

आदत

सब कुछ सही तो था
सब सही तो चल रहा था
फिर कहाँ गलती हुई
कहाँ चूक गए
क्या भूल हुई
और क्या भूल गए
माना थके हुए थे
न जाने कहाँ कैसे आँख
लग गयी
सुबह हुई तो सब नया हो
चुका था
कुछ एहसास की दिक्कत
तो थी ज़हन में
पर इतने भी भटके हुए तो
कभी न थे
रिश्तों की तपश सेकते हुए
कब हाथ जला बैठे पता
ही न चला
जिन बहार के फूलों को
किताब में सहेज के रखा था
कब उन फूलों में पतझड़
आ गयी पता न चला
हम चलते गए और
सब छूटता गया
पीछे मुड6 के देखा तो एक
बीता हुआ युग दिखाई दिया
जहां लौटना तो मुमकिन था पर
जी पाना मुनासिब न था
सब जैसे दिवार पर टंगा रह
गया और कुछ समेट ही न पाए
बनिए का कुछ उधर था
वोह भी चुकता न कर पाए
कोसता होगा कहीं बैठा
मुझे हर पहर
इक वादा किया था
उस शाम ढलते हुए सूरज
के सामने
और उसने दुपट्टे के कोने से बाँध
दिया था उस पल को
दुपट्टे के कोने से वोह शाम
वैसी ही बंधी पड़ी होगी शायद
कई बार सोचा जाकर छुड़ा लाता
हूँ और मुक्त कर देता हूँ खुद को
उस वादे से पर वक़्त है की
कब से दौड़े जा रहा है
और मैं पीछा करते करते
छिल चूका हूँ पूरा
तेज़ चलने की हैसियत तो कभी न
थी और हिसाब में भी शुरू से ही
कच्चे थे
सपनों का दाएरा उँगलियों
के कद से तो छोटा ही था
और आँखें भी गली के पार
देख धुन्धला जाती थी
इक मुट्ठी में समां जाती थी
अपनी छोटी सी दुनिया
कब यह मुट्ठी खुली रह गयी
और कब हाथों में कोरी तन्हाई
चिपक गयी
जब एहसास हुआ तो आग बुझ चुकी थी
बस एक गरम हड्डियों का ढेर
बाकी था
गठड़ी बनाके उसे घर ले आये
अब तक सेक रहा हूँ उन
हड्डियों को
बस इक इंतज़ार ही बाकी है अपने
पास सो कर रहा हूँ
इंतज़ार ख़तम हुआ तो सब बुझ
जाएगा

सच में किसी ने सही कहा है
सांस लेना भी कैसी आदत है
जीए जाना भी कैसी रिवायत है…

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