कुछ कटा हुआ सा
कुछ फटा हुआ सा
थोडा ज़ख़्मी
थोडा लहू-लुहान
एक कूड़ेदान में पड़ा है कबसे
इक 'शब्द
चिल्ला रहा है जाने कबसे
अधमरा निर्जीव सा
अंतिम सांसें गिनता हुआ
कचरे के ढेर में सड़ रहा है
कब से इक 'शब्द'
सुना कई सालों से
घूम रहा था,
दरदर ठोकरें खाता हुआ,
जिंदा रंगीन सड़कों पर,
इक थकी हुई तलाश
करता हुआ
नंगे टूटे पैरों पर
चलते चलते
भूखी सूखी आँखों से
देखता हुआ,
ढूँढा करता था जाने किसको
हर गली हर घर
हर चलता फिरता
अपमान करता,
कोई मारता,
तो कोई गाली देता,
फिर भी छिले हुए
लबों से ,
पुकारता रहता ,
जाने किसको हरपल
भस्म सपनों की राख
ओढ़े हुए,
अपाहिज रात में देखे थे
जो कभी,
अब भी,
आस लगाये बैठा है
लाल हवा के बहने का,
सुर्ख लहू के उड़ने का,
उम्मीद में है ,
की इक दिन ख़त्म होगी
तलाश,
और मिलेगा उसको
इक 'अर्थ'
शायद...
कुछ फटा हुआ सा
थोडा ज़ख़्मी
थोडा लहू-लुहान
एक कूड़ेदान में पड़ा है कबसे
इक 'शब्द
चिल्ला रहा है जाने कबसे
अधमरा निर्जीव सा
अंतिम सांसें गिनता हुआ
कचरे के ढेर में सड़ रहा है
कब से इक 'शब्द'
सुना कई सालों से
घूम रहा था,
दरदर ठोकरें खाता हुआ,
जिंदा रंगीन सड़कों पर,
इक थकी हुई तलाश
करता हुआ
नंगे टूटे पैरों पर
चलते चलते
भूखी सूखी आँखों से
देखता हुआ,
ढूँढा करता था जाने किसको
हर गली हर घर
हर चलता फिरता
अपमान करता,
कोई मारता,
तो कोई गाली देता,
फिर भी छिले हुए
लबों से ,
पुकारता रहता ,
जाने किसको हरपल
भस्म सपनों की राख
ओढ़े हुए,
अपाहिज रात में देखे थे
जो कभी,
अब भी,
आस लगाये बैठा है
लाल हवा के बहने का,
सुर्ख लहू के उड़ने का,
उम्मीद में है ,
की इक दिन ख़त्म होगी
तलाश,
और मिलेगा उसको
इक 'अर्थ'
शायद...