Wednesday, July 9, 2008

द्वंद्व

लहरों पे चलने की कोशिश करती एक कश्ती
और दो किनारों का अंतर्द्वंद्व l
हर पल हरदम हिम्मत जुटाता अकेला माझी
कश्ती पार लगाने को
और अभिमान में जलते दो किनारों का अंतर्द्वंद्व l
कभी कश्ती को डुबाता एक किनारा तो
कभी सहारा देता दूसरे का हाथ l
एक पल ठोकरें खाता माझी तो
दूसरे पल हवा के साथ बातें करता उसका होंसला l
कभी लहरों के ऊफान की विजय तो
कभी शांत पानी में डूबते सूरज का सौन्दर्य l
उसी तरह
मन में हर पल हरदम चलता एक संघर्ष
और मुश्किल से साँस लेती
उभरती हुई कविता की कश्मकश l
कभी कुछ शब्दों की तलाश तो
कभी लुप्त होता कविता का सार l
चाहता हूँ समेटना अगर स्वछन्द बचपन तो
दिखाई देता है हर पल अस्त होता जीवन भी l
एक ओर बुझता हुआ आस्था का दीपक तो
दूसरी ओर रोशन होती क्रांति की मशाल l
कभी झुंड में खो जाने का डर तो
कभी चोटी पर दिखाई देता अकेला खड़ा मेरा प्रतिबिम्ब l
इस कौतुहल में बनती हुई कविता ढूंढ रही है
अपना लक्ष्य
पर कविता अभी भी फंसी हुई है ...

1 comment:

Sarbjot Kaur said...

Nice poem, i think , we are like a boat which keep on moving towards their journey of life till the eternity, in between struggling to survive with ups and downs of the waves. Life is full of struggle, full of mysteries and itself gives the answers of unsaid questions.
Your poem will also find out its theme or the purpose to inspire others.