एक तनहा शाम का
वादा है तुमसे,
सूरज की गरमी और
रात की ठंड में
घुली हुई
कुछ ऐसी शाम का,
थोड़ा मुश्किल है
शायद नामुमकिन भी,
कभी इस डर से
सहम भी जाता हूँ
अकेले बैठे हुए,
पर यह मन है कि
उलझता जाता है हरपल
और कुछ ऐसे ही
नामुमकिन वादे कर
बैठता है तुमसे,
जिनके टूटने से ज़्यादा
पूरा होने से डरता हूँ मैं,
शायद अधूरापन
अपना सा लगने लगा है अब…
सफ़ेद कपड़े पहने
खुले बालों में
दूर से आती
एक सपने जैसी लगती थी तुम,
वोह सच में तुम थी
या तुम्हारी कल्पना,
इस उलझन को सुलझाने की
कोशिश में
लगा हुआ हूँ कबसे,
सुलझाते सुलझाते
खुद एक उलझन बन गया
हूँ मैं,
“तुम्हारे ज़िंदा रहने
का एहसास हूँ”,
ऐसा कहा था इक
दिन तुमने मुझसे
और ढलते सूरज के
नशे में,
सब सच मान लिया
था मैंने,
सच और झूठ के
बीच का फासला
कितना फीका होता है
अब जान पाया हूँ शायद…
शाम की तपती नरम रेत पर
बैठे हुए
सागर की लहरों में
गीले होते,
और घंटों तक
आनेवाले कल की
मंज़िलें तय करते रहते,
तन तो घर जाते ही
सूख गया था लेकिन,
पर मन आज भी तुम्हारे
होने के एहसास से
गीला पड़ा है तब से…
सोया नहीं था उस रात,
जब मेरे हाथ का अधूरा चाँद
अपने हाथ से पूरा किया था तुमने,
उस लम्हे को कैद कर
तकिये के नीचे रख दिया
था मैंने,
बिस्तर पर उस रात की
करवटें आज भी बिखरी पड़ी
हैं तबसे,
सब कुछ वैसा का वैसा
अधूरा अधूरा पड़ा है…
बस एक तनहा शाम का
वादा है तुमसे,
सफ़ेद कपड़े पहने,
खुले बालों में आते
देखना चाहता हूँ तुमको,
जल्दी जल्दी में,
मेरे चाँद का टुकड़ा
अपने साथ ले गयी थी तुम,
और मैं कई पहर इंतज़ार
करता रहा था तुम्हारा,
अब भी अधूरी चांदनी बिखरी
पड़ी है मायूस मेरे हाथों में,
लोग कहते हैं
कि तुम नहीं आयोगी,
और ऐसी उम्मीद करना भी पागलपन है,
कभी तो लगता है
कि एक सपना देख रहा हूँ मैं,
फिर लगता है सब झूठ है,
सब धोखा है,
और शायद यही एक सच है,
कि तुम नहीं आओगी,
तुम कभी नहीं आओगी…