Saturday, November 28, 2020

अवसाद की दोपहर

तुम अलग थे 

सबसे अलग ।


उस पहर तुमने मेरी पीठ पर

उँगलियों से

ब्रह्मांड का एक चित्र बनाया था ।

फिर मेरी देह को

अपनी बाहों में समेट

चल पड़े थे क्षितिज की ओर ।

उन क्षणों में व्यापार

निराधार लगने लगा था।

एक भीष्म-सी प्रतिज्ञा

टूटी थी उस दिन ।

एक द्रौपदी का

सम्मान हुआ था।

सदियों बाद

सुनहरी शाम हुई थी ।

अनंत अभेद आकाश में तैर रही थी

अजर अभीक कल्पना ।

सहवास के बाद का अकेलापन

सपनों की दुनिया में घुल गया ।

सपने में मैंने बाबूजी को देखा,

दफ्तर से आकर खाना खा रहे थे ।

हर रोज़ उनकी जेब से एक

सिक्का चुराया करती थी।

उनके कोट की खुशबु में

सोते सोते शाम बीत गयी ।

उठी तो तुम जा चुके थे

बिस्तर पर कुछ नोट छोड़कर ।

तुम रोज़ आते रहे

मेरे कटु अनुभवों की पोथी जलाने ।

तुम कौन थे ?

क्या चाहते थे ?

कभी पूछाः नहीं मैंने ।

तुम्हें जाना था, बस चले गए

मेरी कीमत से कहीं ज्यादा,

कुछ नोट छोड़कर ।


पीठ पर गुदा ब्रह्मांड का चित्र

मेरी सृष्टि का आधार है ।

लटों में उलझी तुम्हारी उँगलियाँ

मेरी स्मृति की रूपरेखा हैं।

मेरी साँसों की विवशता में तुम्हारी

बातें अटकी हुई हैं। 


अवसाद की धूप खिड़की से झांक रही है

बिस्तर पर पड़े नोटों को जला रही है ।

Friday, November 27, 2020

अवसाद की शाम

शहर की परिधि को धुयें ने 

घेरा हुआ है ।

सुना है किसान पराली जला रहे हैं ।

कई बार गाड़ी का शीशा

साफ़ कर चुका हूँ ।

मिट्टी की चादर

जम सी गयी हो जैसे ।

हर शाम ट्राफिक सिग्नल पर

एक लड़का मिलता है

नयी किताबों के पेपरबैक बेचता ।

कई बार खरीदते हुए रह जाता हूँ

और वो भी मुस्करा के चल देता है ।

इक अनकही सहमती हो गयी है जैसे

रिश्ते को व्यावहार से ना छूने की ।

समय की रफ्तार से लड़ते

एक उम्र बीत गयी है ।

शायद आटोट्यून हो गई है चेतना 

शहर की नीरसता से ।

आज सोसाइटी में

दीवाली का फंकशन है ।

13 मंज़िला इमारतों की

13 हज़ार कहानियां ।

सोसाइटी का गार्ड

सुबह से सुस्ता रहा है ।

गृहस्थी में पिस्ता पिस्ता

मर-सा गया हो जैसे ।

सड़क के किनारे

केले बेचने वाली छोटी सी लड़की

रोज़ की तरह इंतज़ार कर रही है

आपने भाई का ।

बस हथेली पर ठुड्डी रख ताकते रहती है

रिक्त आँखों से भीड़ को,

मानो वास्तविकता के प्रहारों ने

कुरेद दिया हो नन्हें सपनों को ।

लोग सजधज कर नीचे पहुँच गए हैं ।

गहनों से लदी औरतों की अपनी

टोलियाँ बन गयी हैं ।

नशे में मस्त सभी मर्द

कोट में हाथ डाले खिलखिला रहे हैं ।

और जवान लड़के लड़कियां 

झूम रहे हैं ऑर्केस्ट्रा की ताल पर ।


तभी एक दिशा से अवसाद का कोहरा

घेर लेता है शाम को अपने आगोश में

और जड़ चेतन में

सदा के लिए समा जाता है ।


सुना है पास एक गाँव में

आग लगी है...

अवसाद की रात

देर रात ठिठुरती ठंड में 

गली में काला कुत्ता रो रहा था ।

खिड़की से झांक कर देखा तो

कोहरे के बादल बरामदे में

सुन्न खड़े थे,

जैसे किसी दिवालिए की

किवाड़ पर कर्जा मांगने वाले ।

बिस्तर की चादर माँ की माहवारी

से तरबतर हो सिकुड़ी पड़ी थी ।

दाल में कंकर आ जाने से नाराज़

पिताजी भूखे ही सो गए थे ।

रात का अंधेरा चारों ओर से घेरे

पलकों की कोपलों को दबोच रहा था,

जैसे भटके मवेशी बागबां के 

फ़ूलों को कुचलते हैं ।

हर क्षण प्रसव की पीड़ा के समान

बीत रहा था ।

नींद से बोझिल अधखुली आँखे

मानो एक सुनसान जंगल में

रास्ता खो गयी हों  ।

कमरे की सीली हवा

बदन से चिपक कर

सिहर रही थी ।

सकपका के उठा तो

घबराकर फिसल गया ।


उस शाम पड़ोस में

एक जवान लड़के की मौत हुई थी


फ़र्श गीला पड़ा था

और खूंटी से टंगे

पिताजी के कोट से

अवसाद की बूँदें

टपक रही थीं ।