Thursday, October 28, 2010

सच

कल एक रही मिला था तनहा,
भूखा प्यासा,
फटे पुराने जूतों में,
कुछ भटका हुआ सा,
पैरों से लिबड़ी हुई मिटटी
और चेहरे पर थकान
की शिकन,
पीठ पर एक सपने का बोझ और
होठों पे कुछ अनकहे लव्ज़,
मीलों ठोकरें खाता हुआ,
बरसों से वोह चल रहा था,
बेचैन सी आँखों वाला,
जैसे कुछ खो दिया हो उसने,
और ढूंढता फिर रहा हो
दर दर,
पूछा तो बोला,
"कोसों दूर हूँ घर से,
कोसों दूर हूँ मंजिल से,
ढूंढ रहा हूँ उसको,
जिसे कभी देखा नहीं,
जिसे कभी मिला नहीं,
पर सुना कई बार,
लोगों को दुहाई देते हुए,
ढूंढ रहा हूँ उसको,
जो नज़र कभी आता नहीं,
पर जिंदा है कहीं पे,
सहमा सा सांसें लेता हुआ,
ढूंढ रहा हूँ उसको,
जिसका मिलना न मिलना
ज़रूरी नहीं,
पर उसकी तलाश ज़रूरी है,
शायद,
इसलिए बस कबसे,
चल रहा हूँ,
एक सच की तलाश में
भटक रहा हूँ…"

No comments: