Sunday, July 13, 2008

'BIG BROTHER IS WATCHING YOU'


'कुछ नहीं हो सकता, शायद इस देश का कुछ भी नहीं हो सकता'
हाथ जल रहा है। कब से आग में हरपल सुलगते देख रहा हूँ। धीरे धीरे अपाहिज होता जा रहा हूँ। पीड़ा तो है पर चेहरे पे लाते डरता हूँ। एक चीख अन्दर ही अन्दर दब कर दम तोड़ने वाली है। आग बुझाने का साहस जुटाने लगता हूँ तो और कई हाथ जलते दिखाई देते हैं। मेज़ पर टूटी हुई कलम,बिखरी हुई सिहाई और सफ़ेद कागज़ पर अंकित कुछ अधूरे शब्द कोस रहे हैं। सब लोग इंतजार कर रहे हैं । एक दूसरे के अंत का , शायद राख हो जाने का । सब मज़ा लेरहे हैं । एक दूसरे की बेबसी का। शायद लाचार आशाओं और सपनों की मौत का। अब तो यह पीड़ा अपनी सी लगने लगी है या कहना चाहिए आदत पड़ चुकी है - सहने की ,बेबस बने रहने की ,हर किसी को जलते भस्म होते देखने की। बस इंतजार है की कौन किस्से पहले दम तोड़ता है।

'कुछ नहीं हो सकता ,शायद इस देश का कुछ भी नहीं हो सकता।'
कुछ रेंग रहा है। बिस्तर पर लेटा हुआ घडियाँ गिन रहा हूँ। पूरे कमरे में धुआं ही धुआं है। पता नहीं कहाँ आग लगी हुई है। अजीब सा शोर है, कौतुहल सा मचा हुआ है । किसी की चीख तो किसी का रोना। आवाजें जानी पहचानी हैं पर पता नहीं किस किस की। पैर का ज़ख्म तंग कर रहा है। कुछ रेंगता हुआ सा अन्दर ही अन्दर खोखला करता जारहा है। हाथ पहुँचने की कोशिश करना चाहता हूँ पर डरता हूँ। दौड़ कर जानी पहचानी आवाजों के पास पहुंचना चाहता हूँ पर यह भी जानता हूँ कि पहुँचने से पहले ही ख़त्म कर दिया जाऊँगा। मंजिल का रास्ता जानता हूँ, पैरों की हिम्मत का अंदाजा है, पर आदत पड़ चुकी है लेटे रहने की, शोर सुन्ने की, ज़ख्म गहरा होते देखने की। बस इंतजार है कि कब यह सुस्ती मौत में बदल जायेगी।

' कुछ नहीं हो सकता शायद इस देश का कुछ भी नहीं हो सकता'
लब सिले हुए हैं। पर मन में शब्दों का ढेर है, शिकायतों का बाज़ार है। कहने को संविधान मुझे बोलने का अधिकार देता है पर फिर भी चुप रहना भाता है। घुटते रहना अच्छा लगता है। हरपल चंद शब्दों को दम तोड़ता देख रहा हूँ।एक अजीब सी शान्ति है। शब्दों का बोझ तो कम हो रहा है पर चुप रहने का गुनाह अन्दर ही अन्दर खाता जा रहा है। ज़्यादा सोचना नहीं पड़ता, अब। सिकुड़ती हुई सोच यातना की तंग गलियों से गुज़रती हुई हिम्मत बंधाती है, थोड़ा और सहते रहने के लिए साहस का इंतजाम करती है। सोच के कन्धों पर शब्दों की लाशों का अम्बार है। समय गुज़रता है तो शब्दों की अर्थी टूटी हुई मिलती है। बेजान शब्दों के टुकड़े बिखरे पड़े हैं। लाशें सड़ रहीं हैं। जिंदा लोगों को अजीब सी शक्लें बनाए नाक पे हाथ रखे, कीमती कपड़ों को बचाते, पास से गुज़रता हुआ देखता हूँ तो शर्म के मारे आँखें झुक जाती हैं। रोना चाहता हूँ , चीखना चाहता हूँ, अपने आप को जिंदा कहने वाले लोगों पर हँसना चाहताहूँ। पर न तो आंखों से आंसू टपकते हैं, न गले से आवाज़ और न ही चेहरे पे हँसी आती है। सब निर्जीव हो चुका है।बस इंतजार है कि कब शब्दों के अवशेष मिट्टी में दफन हो जायेंगे ।

' कुछ नहीं हो सकता, शायद इस देश का कुछ भी नहीं हो सकता'
सामने नाटक चल रहा है। पात्र मैं हूँ, कहानी भी मैं, कहानी में मरने वाले भी मेरे ही लोग और तालियाँ बजाने वाला भी मैं। मेरी ही जिंदगी को, मेरे ही पैसों से, मेरे सामने दोहराकर, मुझे ही दिखाया जा रहा है। मैं आराम से बैठा तालियाँ मार रहा हूँ। मुर्दा सपनों का नंगा नाच, अधूरे शब्दों के संवाद, जानी पहचानी पर अनजान चीखों का गायन आनंदित कर रहे हैं। आसपास नज़र घुमाता हूँ तो अपने ही जैसे हज़ारों लोगों को देखता हूँ। वही बेबस सा चेहरा, वही हैरान कर देने वाली चुप्पी, वही घुटन, वही जलता हुआ हाथ, पैर का ज़ख्म, और सिले हुए होंठ। ऐसा लगता है की आसपास हजारों आइनों का बाज़ार लगा है। ढूंढ रहा हूँ इक ऐसे चेहरे को जो मेरे जैसा नहीं बल्कि मेरा ख़ुद का हो। इंतज़ार है तो बस बाकी सब आइनों के तहस नहस हो जाने का।

गुस्सा आता है ज़रूर आता है । दफ्तरों पे बढ़ते हुए फाइलों के ढेर, सालों से कोर्ट के चक्कर लगाते बेटे की मौत में इन्साफ की उम्मीद लगाये बूढा बाप, अस्पतालों की सीढियों पे मरते हुए गरीब लोग, चाए की दुकानों पर बरतन साफ़ करते ८ साल के बच्चे , सालों से बनती हुई बिल्डिंग और बिल्डिंग के कूडे में दफ्न मज़दूर, लाखों रुपये की डोनेशन लेते प्राइवेट स्कूल, जलती हुई दुल्हनें , धर्म को बाप की जागीर समझने वाले पंडित और मौलवी, बूथ कैप्तुरिंग, जाली डिग्रियां, लोकतंत्र का मजाक उड़ाते भ्रष्ट नेता, समाचार पत्रों के पेज ३ की हस्तियाँ, डिब्बे में बंद साहित्य, सिकुड़ती हुई सोच, मरते हुए शब्द, सब देखकर गुस्सा आता है, ज़रूर आता है। पर अन्दर ही अन्दर दम तोड़ देता है। न तो क्रान्ति बन पाता है, न ही चीख, न ही नया सिद्धांत। बनता है तो सिर्फ़ शाम की चाए के साथ दो घंटे की गपशप का सामान। कुछ नहीं हो सकता , शायद इस देश का सचमुच कुछ भी नहीं हो सकता। गालियाँ निकालने में सबको मज़ा आता है और जिम्मेदारी उठाने के समय सब कदम थाम कर घर लौट जाते हैं। बंद कमरे में घुटकर जीवन के ६०-७० साल निकाल देते हैं। सबको बेबसी और लाचारी सहने की आदत पड़ चुकी है। हिम्मत है, जोश है, कदम मज़बूत हैं, हाथों में शक्ति है, मन में साँस लेती एक सोच भी है, पर इन सबको क्रान्ति बनाने से सब डरते हैं। चलता है सब चलता है। कुछ नहीं बदलेगा। जैसा चलता है चलता रहेगा। आवाज़ उठायेंगे तो मार दिए जायेंगे। GEORGE ORWELL के उपन्यास 1984 का BIG BROTHER देख रहा है , हरपल ताक में है। हर नई सोच को कुचलने और बचे हुए शब्दों को लाश बनने के प्रयास में। हर भावना, हर क्रान्ति को असफल बनाने के प्रयास में। हर सच को झूठ और हर इतिहास को मिटाता जा रहा है और उसके प्रयासों को सफल बनाने में ज़िम्मेदार हैं तो हम सब। अपनी लाचारी के लिए जिम्मेदार हैं तो हम और सर्फ हम।

जलते हुए हाथों से टूटी हुई कलम को बिखरी हुई सिहाई में डाल कर सफ़ेद कागज़ पर अंकित अधूरे शब्द अब भी पूरे किए जा सकते हैं। ज़ख्मी पैरों से मंजिलें अब भी तय की जा सकती हैं। बचे हुए शब्दों से अब भी एक नए साहित्य की रचना की जा सकती है। ज़रूरत है तो बस अपने गुस्से को क्रान्ति में परिवर्तित करने की। ज़रूरत है तो बस ज़िम्मेदारी उठाने की।