Sunday, February 8, 2009

सपनों का बाज़ार

पिछला जून का महीना और हर रोज़ की तरह होता घर का कलह कलेश । आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने में असमर्थ पिताजी और परिवार के हर सदस्यों की आंखों में दिखाई देने वाला एक भयानक डर। रात को भूखे पेट सोने का डर , घर की कच्ची छत गिर जाने का डर, अपना अस्तित्व खो देने का डर, फ़ना हो जाने का डर। एक दिन इस डर से भयभीत हो मैं निकल गया घर की देहलीज़ से बहार और चलता रहा जहाँ टूटे कदम मुझे ले जाएँ। चलते चलते कब अपनी गलियां पीछे रह गयीं कुछ पता न चला। चलते चलते कब अनजान गलियों की रह पड़ गया कुछ पता ही न चला। नज़र घुमा के देखा तो चारों ओर ऊंची ऊंची आलिशान इमारतें । अपने आसपास देखा तो चींटीयों के तरह भागते हुए हजारों लोग। घबराकर तेज़ चलना चाहा तो किसी कोट सूट पहने बाबू की बड़ी गाड़ी से टकराकर गिर पड़ा । उठकर अपने आप को संभाला कपडों पर लगी हुई धूल को साफ़ किया और चलने की कोशिश करने ही लगा ही था की कहीं से एक सायेरण की आवाज़ सुनाई दी। आवाज़ सुनते ही देखा की हजारों लोग जो पहले अपनी अपनी दिशायों की ओर जा रहे थे सायेरण बजते ही एक तरफ़ भागने लगे। टकराकर कहीं गिर न जाऊं मैंने भी उनके साथ साथ भागने शुरु किया। टूटी चप्पल ने दम तोड़ दिया तो नंगे paaon गरम ज़मीन पर भागता रहा। देखते ही देखते कब एक अंधेर नगरी में दाखिला हो गया पता ही न चला। हर तरफ़ काल घनघोर अँधेरा। चिल्लाने की कोशिश तो आवाजें कहीं विलुप्त हो गयीं। पीछे मुड़कर वापस जाना चाह तो हजारों लोगों की भीड़ मुझे आगे लेती गई। कुछ देर बाद एक और सायेरण की आवाज़। सायेरण बजते ही सब कदम थम गए और इंतज़ार करने लगे । हर तरफ़ शान्ति ही शान्ति और हर तरफ़ चुपचाप न जाने किसका इंतज़ार हुए हजारों लोग।

कुछ देर हुई तो सामने से एक रौशनी दीप्तिमान होती हुई नज़र आयी और फिर एक विशालकाय मानव के दर्शन हुए। ७ फ़ुट लंबा, काले रंग वाला एक विशाल मानव। सब लोगों ने करतल ध्वनि से उसका स्वागत किया । उस विशालकाए मानव ने अपनी ऊंची आवाज़ में सबको सम्भोदित करते हुए कहा,'' आपकी प्रतीक्षा समाप्त हुई। विश्व की सबसे बड़ी स्वप्न नगरी में आपका स्वागत है। आशा करता हूँ की आपकी निद्रा मंगलमय रही होगी। मैं आप सबके सपनों के पूरा होने की कामना करता हूँ।'' इतना बोलते ही सामने दीप्तिमान रौशनी अंधेरे में तब्दील हो गयी और उसके साथ ही विशालकाय मानव भी अंधेरे में कहीं लुप्त हो गया। सोचने लगा की वह मानव किस निद्रा की बात कर रहा था । शायद स्वप्न नगरी तक तय की जाने वाली यात्रा ही आज के मानव की निद्रा कहलाती है। अपने आपको सँभालने की कोशिश करने ही लगा था की चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश होने लगा । तारों के समान लाखों ही बल्ब रंग बिरंगी रौशनी बिखेरने लगे । रौशनी से आँखें चकाचौंध होने लगीं । कुछ समझने की कोशिश करने ही लगा था की अपने आपको छोटे छोटे जादूगर का लिबास पहने बच्चों से घिरा हुआ पाया जो की ठेलों पर अजीबोगरीब यंत्रों से लोगों को बहला रहे थे । पूछने पर पता चला की उन अजीबोगरीब यंत्रों से लोगों को सपने दिखाए जा रहे थे । आगे बढ़कर मैंने भी सपने देखने चाहे तो मुझे धकेल कर एक लम्बी कतार में सबसे पीछे खड़ा कर दिया गया । सब लोग बारी बारी से सपने देख रहे थे। जब मेरी बारी आयी तो मुझसे पूछा गया ,''बाबूजी कौन सा सपने देखना पसंद करोगे? " पूछने पर पता चला की वहाँ हर तरह का सपना दिखाया जाता मैंने भी कई सपने देखे । कभी अपने आपको राजा के सिंहासन पर विराजमान पाया तो दूसरे ठेले पर एक badii sii आलिशान गाड़ी को चलाते हुए। कहीं अपने आपको दुनिया के सभी ऐशोआराम से लड़ा हुआ पाया तो कहीं दुनिया पर राज करते हुए। कहीं अपने आपको सब सुंदर महिल्याओं से घिरा हुआ पाया तो कहीं गौतम बुद्ध की तरह मोक्ष की ओर जाते हुए? सपने देखते देखते पों के छले भूल गया। सपने देखते देखते घर की टूटी हुई छत और भूख से बिलकते हुए छोटे छोटे भी बहनों को भूल गया। सपनों की चकाचौंध से भरी हुई आंखों को मलते मलते जब अपने जीवन की सच्ची सामने आयी तो एक धक्का सा लगा। सपने टूटने का धक्का। चलते चलते कहाँ पहुँच गया और क्या कुछ देखने लगा ज्ञात होते ही डर गया। डर कर वापस जाना चाहा तो पता चला की बहार जाने के सब दरवाज़े बंद हैं क्यूंकि सुबह होने में अभी काफ़ी समय बाकी है। थक हारकर एक कोने में बैठ गया अपने जैसे हजारों लोगों को सपने देखते हुए देखने लगा। सपनों का ऐसा बाज़ार और छोटे छोटे ठेलों पर बिकते हुए बड़े बड़े सपने । सपनों को देखने की धक्काशाही में लगे हुए हजारों लोग और उनके मन में उछल कूद करती हुई सपनों की तरंगें। कहाँ वास्तविक जीवन में पत्थर के समान कठोर मानव तो कहाँ सपनों के संसार में बच्चों के समान मासूम से चेहरे। हर पल जीवन से लड़ते लड़ते, अपनी आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करते करते शायद हम सपने देखना भूल जाते हैं। सपनों का यह बाज़ार उन्ही सपनों को दिखाने का प्रयत्न करता है। सपनों का पूरा होना तो शायद हमसे ज्यादा हमारी किस्मत पर निर्भर करता है पर उनको देखना तो पूरी तरह से हमारे ऊपर निर्भर करता है। सपने हमारे कठिन और कहीं न कहीं निर्जीव जीवन में एक कम्पन का काम करते हैं। यह ससब सोच ही रहा था की फिर से एक सायेरण की आवाज़ सुनाई दी। सब लोग आवाज़ सुनते ही उसी रास्ते पर वापस भागने लगे। अपने अपने घरों की ओर । शायद सपनों को पूरा करने के प्रयत्न में। सपनों के बाज़ार में कब समय निकल गया पता ही न चला । स्वप्न नगरी बंद हो रही थी। ठेलों को काले कपडों से ढककर वापस दुकानों में लेजाया जा रहा था । स्वप्न नगरी से वापस आए तो सुबह हो गयी थी।

भाग-२

आज सुबह जब उठा तो अपने आपको पसीने से तर पाया। बदन बहुत टाप रहा था। नींद से आँखें भरी हुई थीं। शरीर ऐसा पीड़ा से तड़प रहा था की जैसे कोई कीलें थोक रहा हो। पिताजी दूकान जाने के लिए तैयार हो रहे थे। माँ रसोई में उनके लिए नाश्ता बना रही थी। उठने की हिम्मत नहीं हो रही थी। नींद खुलने से पहले शायद कोई सपना देख रहा था। सोचा की फिर से सो जाऊं शायद वो आधा अधूरा सपना फिर से आकर पूरा हो जाए।