Sunday, November 30, 2008

गरीब...

कुछ ऊंची ऊंची
कुछ तनहा तनहा
कुछ तनहा सी ऊंचाइयों से देख रहा हूँ
हर पल करवट लेती नीचे की जिन्दगी को,
कुछ सहमी सहमी
कुछ फना फना
वहाँ की रोशन गरीबी
और उस गरीबी में साँस लेते
ऊंचे ऊंचे सपनों को टूटते बिखरते हुए
देख रहा हूँ ।
जुलाई के मौसम में छत से बिखरती हुई
बारिश की बूँदें
और उन बूंदों से गीली होती हुई
बिस्तर की सुस्त सिलवटें ,

मेज़ पर रखे अख़बार के पास
पापा का बंद चश्मा
और कुर्सी के पास रखी उनकी
फटी हुई चप्पल पर लगी हुई
मोची की कील ,
ठंडी रसोई में पापा के लिए चाय
बनाती माँ
और माँ की खनकती हुई चार चूडियों को
ज़मीन पर बिखरे हुए

देख रहा हूँ
अलमारी में बंद मिठाई का कनिस्टर
और माँ की सादी से बंधी

अलमारी की चाबी को
चुराती हुई बहिन,
हर दिन दीवारों से उतरता हुआ कच्चा रंग
और उस रंग से भरी हुई
दरारों को हरपल गहरा होते हुए
देख रहा हूँ ।
दादी के चेहरे की झुर्रियां
और उन झुर्रियों के पीछे छुपा

सालों का अकेलापन,
वोह पीतल के गिलास पर
लिखा घर का नाम,
और पतलून की फटी हुई

पोक्केट से फिसलती हुई
दुकान की चाबी,
इस गरीबी में साँस लेती कई जिंदगियां
और उन जिंदगियों की छोटी छोटी खुशियों को
धीरे धीरे दफन होता
देख रहा हूँ ।
चलना शुरू किया तो कब कदम दौड़ लगाने
लग गए पता ही न चला ।
कुछ मुश्किल लम्हों की देहलीज़ पर करके कब
हँसना भूल गए पता ही ना चला।
आज पहली बार ज़िन्दगी की ऊंचाई में
अपनी गरीबी को महसूस किया है मैंने ।
आज दोस्तों से भरी हुई इस शाम में
अपने अकेले होने का एहसास किया है मैंने ।
पर सब कुछ बिखरा हुआ सा
धुंधला सा महसूस हो रहा है,
और शायद कहीं न कहीं
इस सब बिखरे हुए में अपने
आप को खोज रहा हूँ मैं...

questions???

Recently some questions have begun to molest me sometimes. I ponder for hours together but then find myself in a serious dilemma. They not only question me as a person but they question my moral integrity, they question my responsibility as a human. I don’t know why but I find myself speechless whenever they knock on my door. I fail to answer them fluently, confidently. I fail to answer them from my heart. I always get entangled in the war of right or wrong. When I look around I don’t find the answer difficult but when I apply the same to myself the situation becomes tense and incomprehensible.

Given a situation if I happen to be at a position where I have a free access to money making business which in moral sense is seriously unethical and illegal, would I still resort to bank up all the money I can within a given time span of my tenure as a responsible officer?

Given a situation if I happen to get a chance when I can avenge
A person who hurt me a lot and vanish his existence from the world would I resort to stab him in the chest and go scot-free?

Given a situation if I happen to succeed myself to a higher level in terms of status and luxuries by deceiving the only friend I have, would I still resort to stake my conscience to satisfy my mortal existence?

Would I or would I not?
Should I or should I not?

I fail to answer.
I fail to comprehend.
But I find myself stained…