Thursday, October 28, 2010

बदलाव

सब बदल रहे हैं,
सोचा खुद को भी
अब बदला जाए,
बहुत हुआ,
बस बहुत हुआ,
समय आ गया है
अब,
इस भोली भाली सूरत से
मुखोटे को उतार
देने का,
यह बेचारी सी मुस्कान
शायद फब्ती नहीं
अब मुझपे,
कहीं फेंक देना होगा
इसे कोने में,
बाज़ार में सुना है
नकली मुस्कान
कौड़ियों के दाम बिक
रही है,
कल ही खरीद के लाया है
मेरा एक दोस्त,
खुश है,
सुना है कोई गम नहीं
अब उसकी ज़िन्दगी में,
भला देखो तो क्या ज़माना
आ गया है...

इन आँखों की नमी
को कई साल हो गए
संभाले हुए,
कोई ज़रुरत नहीं अब इसकी,
जिनको सोच के इसे
संभाले रखा था,
वोह अब नहीं आनेवाले,
बाज़ार में लाल रंग की
आँखें मिलती हैं,
नन्ही सी डिबिया में,
थोड़ी महंगी हैं,
पर क्या फर्क पड़ता है,
५ साल की गारन्ती
भी तो है उनपे,
ले आता हूँ
और फिर आँखें दिखता
हूँ दुनिया को,
देखता हूँ फिर कौन
इंतज़ार करवाता है सदियों तक...

बड़ा मुश्किल है,
सबसे अच्छा होना,
सबके लिए अच्छा करना,
पर आज कल सुना है
सब बदल रहा है,
पहले जैसा नहीं रहा,
किसी से कुछ लेना देना
नहीं होता,
किसी के होने न होने से
कुछ फर्क नहीं पड़ता,
अच्छे बुरे में भी अब
कुछ अंतर नहीं रहा,
तख्ता पलट हो चुका है,
सत्ता बदल चुकी है,
सत्ता को चुनने वाले बदल
चुके हैं,
आजकल कोई अच्छा बुरा नहीं
सोचता,
सब सोचते हैं कि बस किसी
तरह कट जाए,
और गुज़र बसर हो जाए,
बाकी सब देखा जाएगा।

सब कुछ धुन्धला सा
दिखाई देता है अब,
लगता है की मंजिल कहीं
खो न जाऊं,
रास्ता कहीं भटक न जाऊं,
कोई दिखता भी तो नहीं अब
उस ओर जाता हुआ,
सुना है कि सफ़र मुश्किल था
तो वोह रास्ता बंद हो
चुका है,
एक आसान रास्ता बन गया है
उस मंज़िल तक,
बहुत लोग आसानी से मंज़िल
तय करते हैं अब,
सुबह जहाँ जूते उतार आया था
वहां से उन्हें हटाना होगा,
डर है कि आदत के मारे
बेचारे कहीं उस ओर न
चलदें फिरसे,
जहाँ रास्ता तो है पर
बंद है कबसे,
जिसपे चलके मंज़िल तो मिलती है
पर दबे पाँव सरक जाती है
उनकी ओर,
जो किसी और रस्ते से तय करते हैं
अपना सफ़र,
क्या करें,
छल कपट का ज़माना है,
जाने कौन कहाँ पे छलदे,
बचके रहना पड़ता है अब,
बस इन मंजिलों को बदलते
देखना ही बाकी था
ज़िन्दगी में,
वोह भी देख लिया,
पता नहीं अभी आगे क्या क्या
देखना होगा...

छोड़ आया था अपने निशाँ
जाते जाते उनके चेहरे पे,
और हँसते हँसते चल दिया
था मैं उनसे दूर,
माथे की वोह मासूम
शिकन आज भी
जिंदा है मेरे ज़हन में,
चूमता रहता हूँ उसे
सोते हुए,
कि फिकर कुछ कम हो जाए,
पर कुछ दिन से दरारें
नज़र आने लगी हैं उस
लम्हे में,
लगता है की टूट के गिरने
वाला है वक़्त का वोह टुकड़ा,
जो मेरे जिस्म का ही एक
हिस्सा है,
बदलते वक़्त की बदलती रफ़्तार
में कहाँ तक क्या क्या
संभाले रख पाना मुनासिब होगा,
नहीं जानता,
जानता हूँ तो बस इतना
की जाते जाते उस हाथ में जिस
चूड़ी को पहनाया था मैंने,
उस चूड़ी के टुकड़े दिन रात
चुभ रहे हैं मेरी
आँखों में…

सब बदल चुका है,
एक नई दुनिया जैसा
लगता है सब कुछ,
बदला बदला,
धुन्धला धुन्धला,
बेसुआदी सी शाम में
फीका सा पड़ गया है
सूरज का रंग,
और शाम की गरम गरम
चाये से निकलता धुंआ
भी ठंडा पड़ गया है कबसे,
दिसम्बर के महीने में
जिस सूरज की गर्मी से
सिकते थे थके हुए बदन
और पका करती थी रोटियां,
उस सूरज को टूटकर
एक नया सूरज बनते देखा
है मैंने,
माँ की फिकर और
बाबा की डांट भी कम
हो गयी है अब,
जिस खुले आसमान की छत
पे फागुन में उड़ा करते
थे पतंग,
उस आसमान की छत को
तंग होते देखा है मैंने,
जिस पीपल के पेड़ के नीचे
जमा करती थी बुजुर्गों
की पंचायत,
उस पीपल को पतझड़ होते
देख गुजरी है ज़िन्दगी,
घर के पीछे मिटटी में
जहाँ गोटियाँ छुपाया
करते थे हम,
सुना है एक दिन बाढ़ आई
और सब कुछ बहा के ले गयी,
बचपन की शरारत किसी
बिखरे घर के मलबे के नीचे
आकर दबी पड़ी है शायद,
अब कब मलबा हटेगा,
घर आबाद होगा
और फिर से हुड्दंग मचाएगी
शैतानों की टोली,
कोई नहीं जानता...

बदलाव का ज़माना है,
हवा में नयी लहर
चल रही है शायद,
इसलिए सब अजीब लग रहा है,
सब कटा कटा लग रहा है,
जीने में कुछ दिक्कत
तो है,
पर सांस लेना मजबूरी है,
सहना तो पड़ रहा है
लेकिन,
परिवर्तन संसार का नियम है,
इस नियम के खूंटे से बंधे
हुए सब जी रहे हैं,
बदली सी इस दुनिया में
छुप छुप कर,
डर डर कर,
हंसी को बचने की
कोशिश कर रहे हैं सब,
बहुत कुछ देख लिया,
और देखने की हिम्मत
कहाँ बाकी है अब,
बस जो समय बाकी है
कट जाए
और किसी तरह वक़्त का पहिया
बिना दस्तक थम जाए...

आदत

सब कुछ सही तो था
सब सही तो चल रहा था
फिर कहाँ गलती हुई
कहाँ चूक गए
क्या भूल हुई
और क्या भूल गए
माना थके हुए थे
न जाने कहाँ कैसे आँख
लग गयी
सुबह हुई तो सब नया हो
चुका था
कुछ एहसास की दिक्कत
तो थी ज़हन में
पर इतने भी भटके हुए तो
कभी न थे
रिश्तों की तपश सेकते हुए
कब हाथ जला बैठे पता
ही न चला
जिन बहार के फूलों को
किताब में सहेज के रखा था
कब उन फूलों में पतझड़
आ गयी पता न चला
हम चलते गए और
सब छूटता गया
पीछे मुड6 के देखा तो एक
बीता हुआ युग दिखाई दिया
जहां लौटना तो मुमकिन था पर
जी पाना मुनासिब न था
सब जैसे दिवार पर टंगा रह
गया और कुछ समेट ही न पाए
बनिए का कुछ उधर था
वोह भी चुकता न कर पाए
कोसता होगा कहीं बैठा
मुझे हर पहर
इक वादा किया था
उस शाम ढलते हुए सूरज
के सामने
और उसने दुपट्टे के कोने से बाँध
दिया था उस पल को
दुपट्टे के कोने से वोह शाम
वैसी ही बंधी पड़ी होगी शायद
कई बार सोचा जाकर छुड़ा लाता
हूँ और मुक्त कर देता हूँ खुद को
उस वादे से पर वक़्त है की
कब से दौड़े जा रहा है
और मैं पीछा करते करते
छिल चूका हूँ पूरा
तेज़ चलने की हैसियत तो कभी न
थी और हिसाब में भी शुरू से ही
कच्चे थे
सपनों का दाएरा उँगलियों
के कद से तो छोटा ही था
और आँखें भी गली के पार
देख धुन्धला जाती थी
इक मुट्ठी में समां जाती थी
अपनी छोटी सी दुनिया
कब यह मुट्ठी खुली रह गयी
और कब हाथों में कोरी तन्हाई
चिपक गयी
जब एहसास हुआ तो आग बुझ चुकी थी
बस एक गरम हड्डियों का ढेर
बाकी था
गठड़ी बनाके उसे घर ले आये
अब तक सेक रहा हूँ उन
हड्डियों को
बस इक इंतज़ार ही बाकी है अपने
पास सो कर रहा हूँ
इंतज़ार ख़तम हुआ तो सब बुझ
जाएगा

सच में किसी ने सही कहा है
सांस लेना भी कैसी आदत है
जीए जाना भी कैसी रिवायत है…

कल

कतरा कतरा नोचती,
कतरा कतरा काटती ज़िन्दगी
कतरा कतरा फूंक रही है
कतरा कतरा निगल रही है

कल सोते सोते
आधी रात
दस्तक हुई एक
राही की,
आँख खुली
कुंडी खोली
तो देखा की
गुज़रे वक़्त
का एक लम्हा था,
थका हुआ भूका प्यासा,
कोसों चलके आया था,
हाथ धुलाये,
रोट पकाए,
मिल बैठ
दुखड़े सुनाये,
एक समय काफी पक्की
यारी हुआ करती थी हमारी,
उस शाम खूंटे से टंगे
जो कपड़े भूल आया था
दीवार पे,
उन्ही के साथ टंगा रह
गया था वोह लम्हा भी,
जल्दी जल्दी में
बहुत कुछ छूट रहा था,
क्या समेटता, क्या छोड़ता…

एक रोज़ कुछ पल लेके
भागा था वोह लम्हा
जब मेरी जेब से,
पीछा करते करते
चोट लगवा बैठा था मैं
माथे पे,
माथे की वोह चोट आज भी
खुली पड़ी है बरसों से,
ऐसी चोट है की
वक़्त भी सोख न पाया उसे
अपनी गर्मी से...

कच्ची मिटटी में
भरी दोपहरे,
पाँव लिबेड़ते,
हाथ छीलते,
दिन ढलने तक
गली गली हांकते रहते,
खेलते खेलते
कब पैरों के तले
से धीरे धीरे
धूप सरकती गयी,
और हम अपनी पर्छाइयों
में घिर के रह गए,
कुछ पता न चला,
बस लिबड़े पाँव लेके
घर लौट आये,
और कच्ची मिटटी कच्ची
रह गयी...

सालों बाद मिले हैं
थोड़े बदल गए हैं,
बहुत कुछ भूल चुके हैं,
तुम्हारे बालों की सफेदी,
आँखों की गहराई,
चेहरे पर लटका हुआ मॉस,
कांपते हुए हाथ,
बातों में फिकर,
एक उम्र कह रहे हैं
शायद,
जो बहुत अकेले गुजरी है,
बहुत मुश्किल कटी है,
पहले ही तनहा थे,
पर ढलती हुई शाम
में अकेले जाम पकडे
और तनहा हो जाते,
सुबह घर से चलने लगते,
तो कुछ छूट जाने के एहसास
में घुटते रहते,
छूट तो वाकई कुछ गया है…

अब आये हो तो तुम्हे
एक रात रोकने का मन है,
देर रात तक साज़ छेड़ेंगे,
बहुत साल अँधेरे में रोये,
आज गले लगके रोयेंगे,
बरसों का हिसाब भी बाकी है,
कुछ ज़ख्म एक दूजे को दिए,
कुछ ज़ख्म बेवजह खाए,
आज सब तकसीम करेंगे,
रात छोटी है,
हिसाब लम्बा है,
और चंद ही लम्हे बाकी हैं
इस मौसम के,
जो पकड़ लिया वोह अपना,
जो छूट गया वोह लम्हा…

मासूम

एक तस्वीर मिली है,
जली हुई फटी हुई सी,
लाशों के बाज़ार में,
एक हंसती हुई मासूम
सी बच्ची की,
आवाज़ दी,
चीखा भी,
चिल्लाया भी,
पर कहीं से कुछ जवाब
नहीं,
किसी की उधड़ी हुई
चमड़ी के साथ फंसी हुई
थी कबसे,
खून की मौजों में गोते
खाती हुई आ पहुंची
मेरे पैरों तक,
कुछ मॉस के टुकड़े,
कुछ खून के धब्ब्बे,
हटाये तो एक चेहरा सामने आया,
मासूम सा अनजान सा,
इस मौज से बेखबर सा,
कुछ कहना चाहती थी वोह
जैसे मुझको,
और मैं बेजुबान उसकी कशिश
से नासमझ हो रहा था,
फिर एक आह सुनाई दी
तो एक लाश की अंतिम सांस टूटी,
आस पास नज़र घुमाई तो देखा,
अपनी कोख को पीटती हुई एक माँ,
खून की चादर से मेहँदी
उतारती हुई एक दुल्हन,
अपने कुरते के कोने से चश्मा
साफ़ करता हुआ एक पिता,
और भाई की जेब में ताबीज़ रखती
हुई एक बहेन,
हर तरफ खौफनाक
बेक़सूर चेहरे,
हर तरफ वक़्त की हैवानियत
से लतपत गुर्राए हुए चेहरे,
दहाड़ रहे थे जैसे मुझपे,
कुछ देर बाद,
एक आवाज़ गूंजती हुई सुनाई दी,
देखा तो वोह मासूम सी बच्ची,
तस्वीर से कुछ बोल रही थी,
“यह सब मर चुके हैं
जाने कबसे,
यह तो बस भटकते हुए इनके
भूत हैं,
मैं अभी भी जिंदा हूँ,
हँसना चाहती हूँ,
जीना चाहती हूँ,
मुझे लेचालो यहाँ से,
और मुझे जीने दो”

लम्हा

रात के उस लम्हे को कबसे
संभाले हुए घूम रहा हूँ,
चुरा के जो आँचल में भर
लिया था तुमने एक दिन,
और बिछा दिया था तकिये
के नीचे तख्तपोश पर,
बातों बातों में कब
तुम्हारी आँख लगी कि छूट गया
वोह लम्हा तुम्हारे हाथों से,
उस लम्हे को माथे से चूम
तुम्हारी अमानत समझ
लिया था मैंने,
और एक गुनाह कर बैठा था
मैं उस दिन,
एक जुर्म तुमने किया,
एक जुर्म मैंने किया,
कानून दोनों से टूटा,
फिर क्यूँ अकेले सज़ा काट
रहा हूँ एक मुद्दत से,
और मेरे साथ वोह मासूम
लम्हा भी मुजरिम बना हुआ है कबसे,
दिन रात झरोखों से तुम्हारी राह
तकते रहते हैं हम,
कि कब तुम आकर,
अपना जुर्म कबूल करो
और अपने उस लम्हे को रिहाई मिले...

तस्वीर

कल यूँही पन्ने फरोलते हुए,
एक दीवान में रखी एल्बम के,
तस्वीर मिली एक अपनी पुरानी,
मटमैली, कोनों से छिदरी हुई,
एक अरसा पुरानी तस्वीर,
ज़बरदस्ती जो खिचवा दी थी तुमने,
कुल्लू की वादी में,
हट भी तो कर बैट्ठी थी तुम,
और मैं सब कुछ हार जाता था
तुम्हारे आगे,
उसी चाये वाले की दुकान के आगे,
जहां हर सुबह सैर के बाद
चाये पीया करते थे हम,
दिसम्बर की धुंध में हाथ
में चाये पकड़े मेरे हँसते
हुए के पोज़ में,
तस्वीर देख हैराँ हुआ,
शायद बरसों बाद जो देख रहा था,
खुद को हँसते हुए एक तस्वीर में,
तुम गयी और हँसना जैसे
भूल ही गया मैं,
या कहलो वक़्त ही नहीं मिला
कभी हंसने का,
बस चलता ही रहा अपनी जद्दोजेहद में,
आज तस्वीर में खुद को हँसते देखा,
तो एक तमन्ना जागी है इस मन में,
फिर से इक बार हँसना चाहता हूँ खुल के,
जानता हूँ बहुत कुछ बदल चुका है,
और ऐसा मौका मिल पाना भी मुश्किल है,
फिर सोचता हूँ,
की काश कहीं से आकर फिर से तुम
हट कर बैठो,
और ज़बरदस्ती ऐसी ही एक तस्वीर खिचवा दो...

रिश्ता

इस घर में इक रिश्ता
दबा पड़ा है शायद
भरा भरा भारी भारी
सा लगता है सब कुछ
जब भी घुसता हूँ
कमरे में
लगता है कुछ सड़ रहा है
गल रहा है
बू भी आने लगी है
अब तो चीज़ों से
थका हारा शाम को जब
गिरता हूँ बिस्तर पे
तो लगता है जैसे पथरों
पे सो रहा हूँ
इक अजीब सी घुटन है
जैसे एक लम्बी सांस के
इंतज़ार में जी रहा हूँ कबसे
इक खौफनाक सन्नाटा है
आबो हवा में
ठहरा हुआ सा बेचैन सा
जैसे कोई कीलें थोक
रहा हो कानों में
सुनहरी थी वोह घड़ी जब
इस ऊँगली में पहना था मैंने
तेरे इस रिश्ता को
पर फिर उस रिश्ते की चादर
पे ऐसी सिलवटें पड़ी की आजतक
सुलझाने की जद्दोजेहद में
लगा हुआ हूँ मैं
कल भाग गया था
घर से एक तन्हाई की खोज में
सोचा कुछ पल तो खुद का साथ होगा
पर हर वक़्त घिरा रहा गुज़रे कल की
परछाइयों में
जैसे कोई बोटी बोटी कर रहा हो मुझे
और मैं चुप चाप सहता जा रहा
हूँ सब
शाम हुई तो कदम ले चले मुझे फिर
से उस खंडर की ओरे
जहाँ सूरज ढलते ही भूतों का
बसेरा होता है
लगता है शमशान में कोई
लाश जल रही हो जैसे
और दूर एक कोने में बैठा सेक रहा
हूँ अपने इस पिंजर को मैं
कई बार सोचा
कई बार करना चाहा
पर हर बार नाकामियों ने साथ
न छोड़ा
अब लौट आया हूँ तो सब समेट के जाऊँगा
खुद को इस बंधन से मुक्त कर पाऊँ
या नहीं पर
बीमार पड़ रहे इस रिश्ते का गला
घोट के जाऊँगा…

सपना

तनहा काली रात में
जलते हुए चाँद की थाली पर
मुर्दा सपनों की कशिश परोसते रहे
सेहर हुई तो देखा रात भर सुलगती
हुई चांदनी छत पर बिखरी पड़ी है
समेटना चाहा तो सिवाए कालस के
कुछ हाथ न आया
तकिया हटाया तो देखा की एक
तस्वीर बिस्तर पर औंधी पड़ी थी
और चेहरे पर चादर की सिलवटों
के निशाँ थे...

सच

कल एक रही मिला था तनहा,
भूखा प्यासा,
फटे पुराने जूतों में,
कुछ भटका हुआ सा,
पैरों से लिबड़ी हुई मिटटी
और चेहरे पर थकान
की शिकन,
पीठ पर एक सपने का बोझ और
होठों पे कुछ अनकहे लव्ज़,
मीलों ठोकरें खाता हुआ,
बरसों से वोह चल रहा था,
बेचैन सी आँखों वाला,
जैसे कुछ खो दिया हो उसने,
और ढूंढता फिर रहा हो
दर दर,
पूछा तो बोला,
"कोसों दूर हूँ घर से,
कोसों दूर हूँ मंजिल से,
ढूंढ रहा हूँ उसको,
जिसे कभी देखा नहीं,
जिसे कभी मिला नहीं,
पर सुना कई बार,
लोगों को दुहाई देते हुए,
ढूंढ रहा हूँ उसको,
जो नज़र कभी आता नहीं,
पर जिंदा है कहीं पे,
सहमा सा सांसें लेता हुआ,
ढूंढ रहा हूँ उसको,
जिसका मिलना न मिलना
ज़रूरी नहीं,
पर उसकी तलाश ज़रूरी है,
शायद,
इसलिए बस कबसे,
चल रहा हूँ,
एक सच की तलाश में
भटक रहा हूँ…"

FACE

I can read it
Loud and clear,
On your blank white face,
Those promises you made
And never cared to fulfill,
The broad highway
We wished to walk together,
I am still standing on it.
I can read it
Loud and clear,
The lines which
We wished to draw
And stretch beyond
Still stare on your face,
You have changed a lot,
It’s not the face
I had known
And kissed once,
It feels to be a
Little rough
And little broken,
I had loved a different
Face I know,
I can’t be wrong this time,
There is something
Glaring on your
Face for a long time,
It wants to say something
But is afraid of you,
You cannot hide it for long,
It has to break and overflow,
You have changed a lot
And you are in a different
World all together,
I wish you look in the mirror
And find that something
Mysterious has happened
To you,
I doubt you would recognize
Yourself and realize
What’s gone wrong
With your face,
It has slowly crawled
And settled down
And made you look stranger,
I want to tell you
Loud and clear that
It is nothing but the
Loneliness,
Which stares at your face
All the time
And says that
You have changed a lot
You are lonely now….
Inspired by the film ‘Pygmalion’

I was a little bird,
I belonged to sky,
My mother pushed
Me once and I learnt
To fly,
A hunter shot me
And I fell on ground,
You picked me up,
Washed my wounds,
Kissed my lips
And made me a lady,
Walking with you
Hand in hand on streets,
I forgot to flutter,
And learnt to sing,
As is the rule of world,
You loved me,
Then trampled me
Under Your feet,
I have seen your world,
Now I want to return to
My blue sky,
But the day you touched me,
I forgot to fly,
I stand divided between
Two worlds,
The lady wants to stay
But the bird wishes to fly….



Thursday, October 21, 2010

Inspired by the film ‘New York, I love you’


I am a painter
I paint faces
I search for models
Draw their face
And pay to them
Everything ends while
The paint is still damp
We never meet again
I sell their faces
Make good money
And move on
It’s a fair deal
I do my job
I met a face yesterday
I wanted to paint
I approached her
She shrugged and
Moved ahead
I pleaded again
She came to me
And settled on a wooden
Couch
The canvass separated us
While I painted her
Soon I realized I had painted
A different face altogether
I looked at her
And I looked at the painting
Her eyes were soaked
A tear had just stopped in
The middle of face
Her lips were half locked
Sealed with thousand unsaid
Words and phrases
There was blood on her skin
The one I had made using blue
I looked at my palette
It had turned all black
I could hear my heart
And my hands were all wet
This was something strange
I was in love
I wanted to continue her paint
I wished the strokes never end
But I stopped in the middle
Paid her money and
Bid her goodbye
I realized
Everything is not possible
To paint
Sometimes we need too many
Colors
And sometimes we need none
Sometimes we actually move miles
And sometimes we move without
Moving
I had dared to travel the distance
I can never afford
I paint faces
It’s my job
And I cannot love the face I paint
Coz’ I am a painter
Just a painter…

Thursday, May 20, 2010

'शब्द'

कुछ कटा हुआ सा
कुछ फटा हुआ सा
थोडा ज़ख़्मी
थोडा लहू-लुहान
एक कूड़ेदान में पड़ा है कबसे
इक 'शब्द

चिल्ला रहा है जाने कबसे
अधमरा निर्जीव सा
अंतिम सांसें गिनता हुआ
कचरे के ढेर में सड़ रहा है
कब से इक 'शब्द'

सुना कई सालों से
घूम रहा था,
दरदर ठोकरें खाता हुआ,
जिंदा रंगीन सड़कों पर,
इक थकी हुई तलाश
करता हुआ
नंगे टूटे पैरों पर
चलते चलते
भूखी सूखी आँखों से
देखता हुआ,
ढूँढा करता था जाने किसको
हर गली हर घर

हर चलता फिरता
अपमान करता,
कोई मारता,
तो कोई गाली देता,
फिर भी छिले हुए
लबों से ,
पुकारता रहता ,
जाने किसको हरपल

भस्म सपनों की राख
ओढ़े हुए,
अपाहिज रात में देखे थे
जो कभी,
अब भी,
आस लगाये बैठा है
लाल हवा के बहने का,
सुर्ख लहू के उड़ने का,
उम्मीद में है ,
की इक दिन ख़त्म होगी
तलाश,
और मिलेगा उसको
इक 'अर्थ'

शायद...