Thursday, October 28, 2010

रिश्ता

इस घर में इक रिश्ता
दबा पड़ा है शायद
भरा भरा भारी भारी
सा लगता है सब कुछ
जब भी घुसता हूँ
कमरे में
लगता है कुछ सड़ रहा है
गल रहा है
बू भी आने लगी है
अब तो चीज़ों से
थका हारा शाम को जब
गिरता हूँ बिस्तर पे
तो लगता है जैसे पथरों
पे सो रहा हूँ
इक अजीब सी घुटन है
जैसे एक लम्बी सांस के
इंतज़ार में जी रहा हूँ कबसे
इक खौफनाक सन्नाटा है
आबो हवा में
ठहरा हुआ सा बेचैन सा
जैसे कोई कीलें थोक
रहा हो कानों में
सुनहरी थी वोह घड़ी जब
इस ऊँगली में पहना था मैंने
तेरे इस रिश्ता को
पर फिर उस रिश्ते की चादर
पे ऐसी सिलवटें पड़ी की आजतक
सुलझाने की जद्दोजेहद में
लगा हुआ हूँ मैं
कल भाग गया था
घर से एक तन्हाई की खोज में
सोचा कुछ पल तो खुद का साथ होगा
पर हर वक़्त घिरा रहा गुज़रे कल की
परछाइयों में
जैसे कोई बोटी बोटी कर रहा हो मुझे
और मैं चुप चाप सहता जा रहा
हूँ सब
शाम हुई तो कदम ले चले मुझे फिर
से उस खंडर की ओरे
जहाँ सूरज ढलते ही भूतों का
बसेरा होता है
लगता है शमशान में कोई
लाश जल रही हो जैसे
और दूर एक कोने में बैठा सेक रहा
हूँ अपने इस पिंजर को मैं
कई बार सोचा
कई बार करना चाहा
पर हर बार नाकामियों ने साथ
न छोड़ा
अब लौट आया हूँ तो सब समेट के जाऊँगा
खुद को इस बंधन से मुक्त कर पाऊँ
या नहीं पर
बीमार पड़ रहे इस रिश्ते का गला
घोट के जाऊँगा…

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