Wednesday, February 6, 2013

किरदार


कई आहें भरता हूँ 
कई सांसें लेता हूँ 
हर रोज़।
रोज़ स्क्रिप्ट के पन्नों पर 
खींचा ताना जाता हूँ 
पेंसिल से।
एक कल्पना हूँ।
लेखक के कैनवस पर 
खिंची एक लकीर। 
बाकी सभी लकीरों 
जैसी। 
ज़रूरी पर 
मामूली भी। 
इंसान जैसी 
पर 
जीवन से छोटी। 
जीती जागती
मर जाने वाली।   
फिल्म के रील जैसी 
काली धुंधली 
पर इतिहास समेटे 
अंधेरी दलीलों में।
एक सत्य कहानी 
पर रहस्य जैसी। 


कई कॉस्टूम बदलता हूँ 
कई चेहरे पेहेनता हूँ 
हर रोज़।
ना शब्द मेरे 
ना दास्ताँ मेरी 
और ना ही रिश्ते नाते।
ना बिछुए मेरे 
ना कंगन मेरे 
और ना ही तख़्त ताबीज़। 
ना आज़ान मेरी 
ना अंत मेरा 
और ना ही भूत भविष्य। 
मैं तो ज़रिया हूँ 
केवल।
और कुछ नहीं 
कुछ भी नहीं।
देखा है 
अक्सर 
एक कोने में  
आधे अधूरे 
सियाही से सने 
पन्नों को 
कई अपने जैसे 
किरदार समेटे 
किस्मत की उड़ान 
भरते 
बीच कहीं 
निराश हो जाते हैं। 
कौन समझाए 
पगलों को 
नादां बेचारे। 
मौत ही तो सत्य है 
पारब्रह्म। 
सद्चितानन्द।।।  


कई  बार जी चुका  हूँ 
मर चुका हूँ 
कितने ही जीवन। 
यह बूढ़ा स्टूडियो 
प्रमाण है 
मेरी गवाही का। 
मेरे साथ
यह भी तय करता आया है 
अब तक 
इस सफ़र को। 
कितनी बार रोंदा गया 
कुचला गया 
कभी फूलों से नवाज़ा 
गया। 
याद नहीं 
भूल गया हूँ 
सब हिसाब। 
क्या घटा 
जुड़ा
क्या गुणा 
तकसीम हुआ। 
एक अरसा लगता है 
बीत गया
शायद। 
बूढ़ा हो गया हूँ 
अब।
कौन हूँ मैं 
यह जान लूं तो 
मर  सकता हूँ  
बेफ़िक्री से। 
इस पन्नों की ढेरी 
से 
मुझे मेरा किरदार 
लौटा दो। 
और इस किरदारों की बस्ती 
से 
मुझे मेरा अक्स 
लौटा दो। 
फिर ओढ़ा के मुझ पे 
मेरा अपना शरीर
विदा करो 
मुझे रिहा करो।।।

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