Friday, March 11, 2011

मौत - भाग २



कई बार सोचता हूँ,
फिर सोच के मुस्कुराता हूँ,
और मुस्कुराते हुए कहता हूँ
कि नहीं हो सकता,
ऐसा कभी नहीं हो सकता,
भला ऐसा भी हुआ है कभी,
मैं भी कितना पागल हूँ,
फिर लगता है सोचने में
क्या हर्ज़ है,
कौन सा सोच पे कोई क़र्ज़
लगता है,
सोच भी अपनी है,
वक़्त भी अपना है,
और ज़िन्दगी भी अपनी ही
तो है,
सपना ही मान लेते हैं
चलो इसे,
सपने तो होते ही ऐसे हैं,
हकीकत और ज़िन्दगी से
कोसों दूर,
अपनी ही दुनिया में मस्त,
फिर भी उन्हें देखने का अपना
ही मज़ा है,
सच न हुए तो क्या,
एक उम्मीद तो रहती है न,
कि काश कभी ऐसा हो जाये,
ज़िन्दगी नई सी लगती है,
धुली हुई,
साफ़ सुथरी,
शहर के धुंए से दूर,
कहीं किसी गाँव में बसी हुई…
ऐसा ही कुछ सोचा है मैंने,
कहना चाहो तो कह सकते
हो एक सपना,
कि मौत अगर ज़िन्दगी से पहले
आ जाए तो कैसा होगा,
ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी होगी,
बिना किसी ख्वाहिश के,
बिना किसी खौफ के,
और बिना किसी सरहद के,
मुक्त,
मदहोश,
खुशहाल,
अंतहीन,
ज़िन्दगी
सच में,
मौत अगर ज़िन्दगी से पहले
आ जाये तो कैसा होगा,
ज़िन्दगी सिर्फ ज़िन्दगी होगी,
बिना किसी अंत के,
बिना किसी लक्ष्य के,
और बिना किसी सहारे के,
नग्न,
वीरान,
उदास,
अधूरी,
ज़िन्दगी,
सिर्फ ज़िन्दगी…
सच में,
मौत अगर ज़िन्दगी से पहले
आ जाये तो कैसा होगा...

2 comments:

Umesh Bawa said...

कुछ ख्वायिशें ऐसी ही होती है,
पल भर का इन्तजार,
भी बरसो का सिलसिला लगता है,

किसी चीज का इन्तजार नही अब,
अब तो जिन्दगी को आबाद करना है,
अब तो मौत से गले मिलना है....

Mohit,
keep doing this... i'm really getting interested in every verse of yours....

mohit mittal said...

Dear Umesh
Thnx. rightly said. truly fits the verse. every word.
bye
keep writing...