Tuesday, March 8, 2011

मौत - भाग १



छुपी पड़ी है
न जाने कबसे,
ढूंढ रहा हूँ
इधर उधर,
पलक झपकते ही
छुप जाती है
न जाने किधर,
कहीं कोने कुदरे में
दब गयी हो गयी
शायद,
रख कर भूल भी
तो जाता हूँ अब,
किताबें हटा
के देखूँगा कल,
देखना वहीं होगी
और झांक रही होगी
मुझको,
जहाँ पढ़ते पढ़ते
छोड़ा था उसी पन्ने
की दरीचों में,
नटखट है,
नादान भी,
कठिन है,
कठोर भी,
रूठ जाए तो
मनाये भी नहीं
मानती,
जिद्दी है,
आखिर मुझपे ही तो
गयी है न,
आवाज़ देता हूँ तो
बोलती है कि
अभी नहीं आऊँगी,
गुस्सा होता हूँ तो
पलट के
पल्लू झटका के कहती
है कि देखलूँगी
वक़्त आने पर,
एक दिन रूठ कर
दरवाज़ा तोड़ के जो
भागी थी घर से,
घंटों तरसता रहा
था खिड़की पे
बैठे बैठे,
कि गली के मोड़ से आती जब
नज़र आएगी तो
खूंटे से बाँध
दूँगा उसे और
अपना बनाके रखूँगा
उम्र भर,
उम्र बीत गयी,
दरवाज़ा आज भी
उसकी उम्मीद में खुला
पड़ा है,
और खिड़की से जब भी बाहर
नज़र घूमाता हूँ तो
लगता है जैसे वोह आ रही है,
पर ऐसी है यह कमबख्त
कि आती ही नहीं,
बड़ी ही अजीब चीज़ है
सच में,
ऊपर वाले ने भी
बहुत सोच समझ के
वक़्त से बनाई है,
कि जितना चाहो फिर भी
नहीं आती
कभी
यह मौत…

2 comments:

Sunil Aggarwal said...

मोहित
यह कविता मृत्यु को बड़े हलके अंदाज़ में पेश कर रही है. अच्छी लगी. थोड़ी सी इस पर मेहनत और कर लो. कमाल की बन जायेगी
सुनील

Umesh Bawa said...

जिन्दगी से जो पहले आये,
साथ किसी अपने से भी ज्यादा निभाए,
ऐसा रिश्ता है उससे हमारा,
जुदा भी न हो, और पास भी ना जाये........