कुछ ऊंची ऊंची
कुछ तनहा तनहा
कुछ तनहा सी ऊंचाइयों से देख रहा हूँ
हर पल करवट लेती नीचे की जिन्दगी को,
कुछ सहमी सहमी
कुछ फना फना
वहाँ की रोशन गरीबी
और उस गरीबी में साँस लेते
ऊंचे ऊंचे सपनों को टूटते बिखरते हुए
देख रहा हूँ ।
जुलाई के मौसम में छत से बिखरती हुई
बारिश की बूँदें
और उन बूंदों से गीली होती हुई
बिस्तर की सुस्त सिलवटें ,
मेज़ पर रखे अख़बार के पास
पापा का बंद चश्मा
और कुर्सी के पास रखी उनकी
फटी हुई चप्पल पर लगी हुई
मोची की कील ,
ठंडी रसोई में पापा के लिए चाय
बनाती माँ
और माँ की खनकती हुई चार चूडियों को
ज़मीन पर बिखरे हुए
देख रहा हूँ ।
अलमारी में बंद मिठाई का कनिस्टर
और माँ की सादी से बंधी
अलमारी की चाबी को
चुराती हुई बहिन,
हर दिन दीवारों से उतरता हुआ कच्चा रंग
और उस रंग से भरी हुई
दरारों को हरपल गहरा होते हुए
देख रहा हूँ ।
दादी के चेहरे की झुर्रियां
और उन झुर्रियों के पीछे छुपा
सालों का अकेलापन,
वोह पीतल के गिलास पर
लिखा घर का नाम,
और पतलून की फटी हुई
पोक्केट से फिसलती हुई
दुकान की चाबी,
इस गरीबी में साँस लेती कई जिंदगियां
और उन जिंदगियों की छोटी छोटी खुशियों को
धीरे धीरे दफन होता
देख रहा हूँ ।
चलना शुरू किया तो कब कदम दौड़ लगाने
लग गए पता ही न चला ।
कुछ मुश्किल लम्हों की देहलीज़ पर करके कब
हँसना भूल गए पता ही ना चला।
आज पहली बार ज़िन्दगी की ऊंचाई में
अपनी गरीबी को महसूस किया है मैंने ।
आज दोस्तों से भरी हुई इस शाम में
अपने अकेले होने का एहसास किया है मैंने ।
पर सब कुछ बिखरा हुआ सा
धुंधला सा महसूस हो रहा है,
और शायद कहीं न कहीं
इस सब बिखरे हुए में अपने
आप को खोज रहा हूँ मैं...
कुछ तनहा तनहा
कुछ तनहा सी ऊंचाइयों से देख रहा हूँ
हर पल करवट लेती नीचे की जिन्दगी को,
कुछ सहमी सहमी
कुछ फना फना
वहाँ की रोशन गरीबी
और उस गरीबी में साँस लेते
ऊंचे ऊंचे सपनों को टूटते बिखरते हुए
देख रहा हूँ ।
जुलाई के मौसम में छत से बिखरती हुई
बारिश की बूँदें
और उन बूंदों से गीली होती हुई
बिस्तर की सुस्त सिलवटें ,
मेज़ पर रखे अख़बार के पास
पापा का बंद चश्मा
और कुर्सी के पास रखी उनकी
फटी हुई चप्पल पर लगी हुई
मोची की कील ,
ठंडी रसोई में पापा के लिए चाय
बनाती माँ
और माँ की खनकती हुई चार चूडियों को
ज़मीन पर बिखरे हुए
देख रहा हूँ ।
अलमारी में बंद मिठाई का कनिस्टर
और माँ की सादी से बंधी
अलमारी की चाबी को
चुराती हुई बहिन,
हर दिन दीवारों से उतरता हुआ कच्चा रंग
और उस रंग से भरी हुई
दरारों को हरपल गहरा होते हुए
देख रहा हूँ ।
दादी के चेहरे की झुर्रियां
और उन झुर्रियों के पीछे छुपा
सालों का अकेलापन,
वोह पीतल के गिलास पर
लिखा घर का नाम,
और पतलून की फटी हुई
पोक्केट से फिसलती हुई
दुकान की चाबी,
इस गरीबी में साँस लेती कई जिंदगियां
और उन जिंदगियों की छोटी छोटी खुशियों को
धीरे धीरे दफन होता
देख रहा हूँ ।
चलना शुरू किया तो कब कदम दौड़ लगाने
लग गए पता ही न चला ।
कुछ मुश्किल लम्हों की देहलीज़ पर करके कब
हँसना भूल गए पता ही ना चला।
आज पहली बार ज़िन्दगी की ऊंचाई में
अपनी गरीबी को महसूस किया है मैंने ।
आज दोस्तों से भरी हुई इस शाम में
अपने अकेले होने का एहसास किया है मैंने ।
पर सब कुछ बिखरा हुआ सा
धुंधला सा महसूस हो रहा है,
और शायद कहीं न कहीं
इस सब बिखरे हुए में अपने
आप को खोज रहा हूँ मैं...
1 comment:
bahut sundar ., bahut hi achchha lga .
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