देर रात ठिठुरती ठंड में
गली में काला कुत्ता रो रहा था ।
खिड़की से झांक कर देखा तोकोहरे के बादल बरामदे में
सुन्न खड़े थे,
जैसे किसी दिवालिए की
किवाड़ पर कर्जा मांगने वाले ।
बिस्तर की चादर माँ की माहवारी
से तरबतर हो सिकुड़ी पड़ी थी ।
दाल में कंकर आ जाने से नाराज़
पिताजी भूखे ही सो गए थे ।
रात का अंधेरा चारों ओर से घेरे
पलकों की कोपलों को दबोच रहा था,
जैसे भटके मवेशी बागबां के
फ़ूलों को कुचलते हैं ।
हर क्षण प्रसव की पीड़ा के समान
बीत रहा था ।
नींद से बोझिल अधखुली आँखे
मानो एक सुनसान जंगल में
रास्ता खो गयी हों ।
कमरे की सीली हवा
बदन से चिपक कर
सिहर रही थी ।
सकपका के उठा तो
घबराकर फिसल गया ।
उस शाम पड़ोस में
एक जवान लड़के की मौत हुई थी ।
एक जवान लड़के की मौत हुई थी ।
फ़र्श गीला पड़ा था
और खूंटी से टंगे
पिताजी के कोट से
अवसाद की बूँदें
टपक रही थीं ।
और खूंटी से टंगे
पिताजी के कोट से
अवसाद की बूँदें
टपक रही थीं ।
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