Thursday, August 4, 2016

WAITING FOR GODOT!!!

अक्सर सोचता हूँ
युहीं
जो बिछा हुआ है
दबा हुआ है
इस धुएं का स्रोत क्या है
इस अँधेरे का छोर क्या है 
कुछ दिख रहा है 
पर इस कौतुहल का मोड़ क्या है।  
पतंग की डोर सा 
उलझता रहता हूँ 
गिरहों में
समझ नहीं पाता 
की यह दौर क्या है।  
क्या सिर्फ मैं हूँ 
या कोई और भी है
साथ मेरे 
इस सफर की भोर क्या है।  

कुछ शब्द हैं 
तिलमिलाते हुए
मेरे गगन में 
अट्खेलियआँ करते हुए 
छेड़ते से 
आते जाते रहते हैं 
कई बार दिन भर 
इक आस 
इक सांस बंधाने को।  
छूता हूँ तो छिप जाते हैं 
बिरहा के काले बादलों में 
पुकारता हूँ तो 
टकरा जाते हैं 
मुझसे ही मेरी आवाज़ के रोएं 
आखिर ये कशमकश क्या है।  
कोशिश करता हूँ विस्तार करने की 
चल रहा है जो भीतर 
आखिर ये माजरा क्या है।  

थोड़ा उठता हूँ 
और चलता हूँ
पर पाता हूँ की 
वहीं खड़ा हूँ 
जैसे बरसों से 
किसी इंतज़ार में 
उंगलियां दबाये 
सांस रोके 
गली की चौखट पे 
भला कोई बताये तो 
ये इंतज़ार क्या है।  

हर इक अजनबी सा लगता है 
अजीब से कपड़ों में 
रंगीन चेहरे ओढ़े 
असल क्या 
नक़ल क्या 
नशे में धुत ये इंसान क्या।  
हैरान सा 
देखता हूँ 
सबको 
अपनी लहर में चलते हुए
दिन रात 
बड़ी तेज़ी से 
काली सड़क पे 
काटते लांघते हाँफते 
न जाने ये दौड़ क्या है।  

शायद जो चल रहा है अंदर 
युगों युगांतर का संघर्ष है 
सदीयों की पीड़ा है 
बरसों की व्यथा है 
ये देह मेरी न हुई तो क्या 
ये गंध मेरी न हुई तो क्या 
ये संघर्ष मेरा न हुआ तो क्या 
इस संघर्ष का चरित्र मेरा है 
जो मैंने अपनी रूह से सींचा है 
अपने लहू से खींचा है 
हाँ ये संसार मेरा है 
युगों से चलते आये 
मानव संघर्ष का संसार
शायद बस यही अपना है 
अपना और कुछ भी नहीं। 


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