Friday, August 5, 2016

देखो तो सही!

उस रात जब तुमने
कहा बस इतना ही
और नहीं
बस इतना ही
आँखें झपकी
बाल सहलाये
चूड़ी उतारी
और चली गयी दूर कहीं
परियों की दुनिया में
सोचा मैंने
रात भर करवट बदल
उलट पलट
और नहीं बस इतना ही?

फिर जब तुमने उस शाम
चलते हुए
कहा बस इतना ही
और नहीं अब
बस इतना ही
जैकेट उठाई
सैंडल पहने
चाबियां दबोची
और चलने लगी वापस
गाडी की ओर
सोचता रहा तमाम
रास्ते
क्या बस इतना ही
और नहीं।

बस इतना ही नहीं
कुछ और भी तो है
कीवाडों के अंदर
मकानों के अंदर
रंगीन चादरों के अंदर
इस हाड मॉस के ढेर के अंदर।

इक उम्मीद पनपती है
दिन रात
बरामदे की
गीली दीवार के साथ
इक आस थिरकती है
हर शाम
रसोई के बर्तनों के साथ
इक भरोसा बढ़ता है
हर सहर
तेरी गरम
साँसों के साथ
इक जिज्ञासा ऊँघती है
हर दोपहर
बिस्तर की
सिलवटों के साथ।

हताशा क्यों
बस इतना ही क्यों
मैं तो कुछ और भी
हूँ यार
देखो कितने पुल
गुज़रते हैं मेरी पेशानी से
और कितने रास्ते
आ जुड़ते हैं
बड़ी आसानी से
देखो क्तिनी नहरें
बहती हैं इन
आँखों में
और कितने सपने
तैरते हैं
सियाह लहरों में
देखो कितने खेत
लहराते हैं मेरे
सीने पे
और कितने पंछी
नाचते हैं
बारिश के
महीने में
देखो कितने गांव
बस रहे हैं मेरे
हाथों पे
और कितने घर गूँज
रहे हैं
बच्चों के पैरों से।

देखो कितना कुछ है
और भी कितना सारा है
तुम देखो तो सही।

उस रात तुमने जो
सपना देखा था
उसे सींच रहा हूँ
दिन रात
उस शाम तुमने जो
धागा बाँधा था
उसे खोल रहा हूँ
हर पात
तुमने जो मिश्री घोली थी
चाशनी बन गयी है
वो
तुमने जो बीज बोया था
फसल पक रही है
वो
तुम्हारे सवाल सवाल नहीं
खुद जवाबों का जंगल हैं
ये ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं
सिर्फ
संभावनाओं का दंगल है।

देखो कोई दस्तक दे रहा है
कब से
उठो तो सही
कितने जीवन
कितने संसार
बरस रहे हैं
अपने आँगन में...

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