Sunday, August 7, 2016

जुर्म

शायद तुम्हे भी पता है
मुझे भी पता है।

उस शाम
तुम जब आये
घंटी बजायी
मैंने दरवाज़ा खोला
तुमने हस के
मुझे देखा
तुमने कपडे बदले
कुरता पहना
पानी पिया
तुम्हारे हाथों ने
मुझे छुआ
तुम बैठे टीवी देखने
मैंने कुछ कहा
तुमने कुछ कहा
खाना खाया टेबल पर
और फिर सोने
चल दिए।

शायद तुम्हे भी पता है
मुझे भी पता है
उस शाम
घंटी में वो खनक
न थी
तुम्हारे चेहरे पे वो चमक
न थी
तुम्हारे हाथों में वैसी कसक
न थी
आँखें बेजान थी
आवाज़ बेज़ुबान थी
हंसी अधूरी थी
रोटी सूखी थी
सब्ज़ी फीकी थी
तुम्हारी सांसें
बेसहारा थी
और करवटें
लापरवाह थी।

अब छोडो भी यार
तुम्हे भी पता है
मुझे भी पता है
यकीनन
उस शाम एक क़त्ल
हुआ था
उस रात एक चोरी
हुई थी
एक घर लुटा था
कहीं आग लगी थी
कुछ सपने उजड़े थे
और वादे
अपाहिज हुए थे
कोशिशें नाकाम हुई थी
यादें बेस्वाद हुई थी
रंगीन चश्मे फूटे थे
बेपरवाह सांसें
घुटी थीं
कुछ धागे टूटे थे
कई चिराग बुझे थे।

पैबंद लगे कपड़ों को
कब तक पहनोगे
मरम्मत हुई चप्पल
में कब तक संभलोगे
अधूरी नींदों से
कब तक जागोगे
मनहूस सपनों से
कब तक झगड़ोगे।

तम्हे सब पता है यार
और मुझे भी पता है
कुछ बोले नहीं थे तुम
सब समझ गयी थी मैं
दबे हुए थे लब
फिर भी खुला हुआ था सब
तुम्हारी आँखें
सूज रही थी
तुम्हारी करवटें
गूँज रही थी
तुमसे एक जुर्म हुआ था
उस शाम
तुमने एक जुर्म छुपाया था
उस रात।

बेशक
तुमसे एक जुर्म हुआ था
उस शाम
पर जुर्म मुझसे भी हुआ है
कई बार
मैं कभी बोली नहीं
तुम कभी जाने नहीं
या शायद जान के भी
समझे नहीं
जुर्म हम दोनों से हुआ है
मेरे यार
और होता आया है
बार बार।

नहीं पता
जब जुर्म हुआ
मेरी नीयत क्या था
या जब तुमसे हुआ
तुम्हारी सीरत क्या थी
पर दोषी हम दोनों हैं
एक नहीं
दो गुनाहों के
जुर्म करने के
और उसे छुपाने के।

जुर्म क्या था
किसने किया
किसपे किया
क्यों हुआ
ज़रूरी नहीं
और जुर्म की सजा भी
लाज़मी नहीं
जुर्म तो होता आया है
सदीयों से
मुझसे
तुमसे
सबसे
फिर शर्मिंदा क्यों ?

जुर्म होना तो नियति है
हमारे जीवन की
मानव संसार की
हमारी सांसें जुर्म की
आभारी हैं
हमारे कर्म जुर्म के
व्यापारी हैं
एक शायद जुर्म ही तो है
जो बांधे हुए है सबको
ओढ़े हुए है सबको
एक जुर्म ही तो है
जो खींचे हुए है सबको
सींचे हुए है सबको
एक जुर्म ही तो है
जो खोजे हुए है सबको
ढोए हुए है सबको।

क्या हुआ जो जुर्म हुआ
एक जुर्म ही तो है
हाँ
एक जुर्म ही तो है।

मैं तुम्हे इस जुर्म से
हर जुर्म से
रिहा करती हूँ
आज।

Friday, August 5, 2016

देखो तो सही!

उस रात जब तुमने
कहा बस इतना ही
और नहीं
बस इतना ही
आँखें झपकी
बाल सहलाये
चूड़ी उतारी
और चली गयी दूर कहीं
परियों की दुनिया में
सोचा मैंने
रात भर करवट बदल
उलट पलट
और नहीं बस इतना ही?

फिर जब तुमने उस शाम
चलते हुए
कहा बस इतना ही
और नहीं अब
बस इतना ही
जैकेट उठाई
सैंडल पहने
चाबियां दबोची
और चलने लगी वापस
गाडी की ओर
सोचता रहा तमाम
रास्ते
क्या बस इतना ही
और नहीं।

बस इतना ही नहीं
कुछ और भी तो है
कीवाडों के अंदर
मकानों के अंदर
रंगीन चादरों के अंदर
इस हाड मॉस के ढेर के अंदर।

इक उम्मीद पनपती है
दिन रात
बरामदे की
गीली दीवार के साथ
इक आस थिरकती है
हर शाम
रसोई के बर्तनों के साथ
इक भरोसा बढ़ता है
हर सहर
तेरी गरम
साँसों के साथ
इक जिज्ञासा ऊँघती है
हर दोपहर
बिस्तर की
सिलवटों के साथ।

हताशा क्यों
बस इतना ही क्यों
मैं तो कुछ और भी
हूँ यार
देखो कितने पुल
गुज़रते हैं मेरी पेशानी से
और कितने रास्ते
आ जुड़ते हैं
बड़ी आसानी से
देखो क्तिनी नहरें
बहती हैं इन
आँखों में
और कितने सपने
तैरते हैं
सियाह लहरों में
देखो कितने खेत
लहराते हैं मेरे
सीने पे
और कितने पंछी
नाचते हैं
बारिश के
महीने में
देखो कितने गांव
बस रहे हैं मेरे
हाथों पे
और कितने घर गूँज
रहे हैं
बच्चों के पैरों से।

देखो कितना कुछ है
और भी कितना सारा है
तुम देखो तो सही।

उस रात तुमने जो
सपना देखा था
उसे सींच रहा हूँ
दिन रात
उस शाम तुमने जो
धागा बाँधा था
उसे खोल रहा हूँ
हर पात
तुमने जो मिश्री घोली थी
चाशनी बन गयी है
वो
तुमने जो बीज बोया था
फसल पक रही है
वो
तुम्हारे सवाल सवाल नहीं
खुद जवाबों का जंगल हैं
ये ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं
सिर्फ
संभावनाओं का दंगल है।

देखो कोई दस्तक दे रहा है
कब से
उठो तो सही
कितने जीवन
कितने संसार
बरस रहे हैं
अपने आँगन में...

Thursday, August 4, 2016

WAITING FOR GODOT!!!

अक्सर सोचता हूँ
युहीं
जो बिछा हुआ है
दबा हुआ है
इस धुएं का स्रोत क्या है
इस अँधेरे का छोर क्या है 
कुछ दिख रहा है 
पर इस कौतुहल का मोड़ क्या है।  
पतंग की डोर सा 
उलझता रहता हूँ 
गिरहों में
समझ नहीं पाता 
की यह दौर क्या है।  
क्या सिर्फ मैं हूँ 
या कोई और भी है
साथ मेरे 
इस सफर की भोर क्या है।  

कुछ शब्द हैं 
तिलमिलाते हुए
मेरे गगन में 
अट्खेलियआँ करते हुए 
छेड़ते से 
आते जाते रहते हैं 
कई बार दिन भर 
इक आस 
इक सांस बंधाने को।  
छूता हूँ तो छिप जाते हैं 
बिरहा के काले बादलों में 
पुकारता हूँ तो 
टकरा जाते हैं 
मुझसे ही मेरी आवाज़ के रोएं 
आखिर ये कशमकश क्या है।  
कोशिश करता हूँ विस्तार करने की 
चल रहा है जो भीतर 
आखिर ये माजरा क्या है।  

थोड़ा उठता हूँ 
और चलता हूँ
पर पाता हूँ की 
वहीं खड़ा हूँ 
जैसे बरसों से 
किसी इंतज़ार में 
उंगलियां दबाये 
सांस रोके 
गली की चौखट पे 
भला कोई बताये तो 
ये इंतज़ार क्या है।  

हर इक अजनबी सा लगता है 
अजीब से कपड़ों में 
रंगीन चेहरे ओढ़े 
असल क्या 
नक़ल क्या 
नशे में धुत ये इंसान क्या।  
हैरान सा 
देखता हूँ 
सबको 
अपनी लहर में चलते हुए
दिन रात 
बड़ी तेज़ी से 
काली सड़क पे 
काटते लांघते हाँफते 
न जाने ये दौड़ क्या है।  

शायद जो चल रहा है अंदर 
युगों युगांतर का संघर्ष है 
सदीयों की पीड़ा है 
बरसों की व्यथा है 
ये देह मेरी न हुई तो क्या 
ये गंध मेरी न हुई तो क्या 
ये संघर्ष मेरा न हुआ तो क्या 
इस संघर्ष का चरित्र मेरा है 
जो मैंने अपनी रूह से सींचा है 
अपने लहू से खींचा है 
हाँ ये संसार मेरा है 
युगों से चलते आये 
मानव संघर्ष का संसार
शायद बस यही अपना है 
अपना और कुछ भी नहीं।