Friday, November 27, 2020

अवसाद की रात

देर रात ठिठुरती ठंड में 

गली में काला कुत्ता रो रहा था ।

खिड़की से झांक कर देखा तो

कोहरे के बादल बरामदे में

सुन्न खड़े थे,

जैसे किसी दिवालिए की

किवाड़ पर कर्जा मांगने वाले ।

बिस्तर की चादर माँ की माहवारी

से तरबतर हो सिकुड़ी पड़ी थी ।

दाल में कंकर आ जाने से नाराज़

पिताजी भूखे ही सो गए थे ।

रात का अंधेरा चारों ओर से घेरे

पलकों की कोपलों को दबोच रहा था,

जैसे भटके मवेशी बागबां के 

फ़ूलों को कुचलते हैं ।

हर क्षण प्रसव की पीड़ा के समान

बीत रहा था ।

नींद से बोझिल अधखुली आँखे

मानो एक सुनसान जंगल में

रास्ता खो गयी हों  ।

कमरे की सीली हवा

बदन से चिपक कर

सिहर रही थी ।

सकपका के उठा तो

घबराकर फिसल गया ।


उस शाम पड़ोस में

एक जवान लड़के की मौत हुई थी


फ़र्श गीला पड़ा था

और खूंटी से टंगे

पिताजी के कोट से

अवसाद की बूँदें

टपक रही थीं ।

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